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Tuesday 19 December 2017

व्याकरण

11. मुहावरे

::अंग छूटा- (कसम खाना) मैं अंग छूकर कहता हूँ साहब, मैने पाजेब नहीं देखी।
::अंग-अंग मुसकाना-(बहुत प्रसन्न होना)- आज उसका अंग-अंग मुसकरा रहा था।
::अंग-अंग टूटना-(सारे बदन में दर्द होना)-इस ज्वर ने तो मेरा अंग-अंग तोड़कर रख दिया।
::अंग-अंग ढीला होना-(बहुत थक जाना)- तुम्हारे साथ कल चलूँगा। आज तो मेरा अंग-अंग ढीला हो रहा है।
::अक्ल का दुश्मन-(मूर्ख)- वह तो निरा अक्ल का दुश्मन निकला।
:: अक्ल चकराना-(कुछ समझ में न आना)-प्रश्न-पत्र देखते ही मेरी अक्ल चकरा गई।
:: अक्ल के पीछे लठ लिए फिरना (समझाने पर भी न मानना)- तुम तो सदैव अक्ल के पीछे लठ लिए फिरते हो।
::अक्ल के घोड़े दौड़ाना-(तरह-तरह के विचार करना)- बड़े-बड़े वैज्ञानिकों ने अक्ल के घोड़े दौड़ाए, तब कहीं वे अणुबम बना सके।
::आँख दिखाना-(गुस्से से देखना)- जो हमें आँख दिखाएगा, हम उसकी आँखें फोड़ देगें।
::आँखों में गिरना-(सम्मानरहित होना)- कुरसी की होड़ ने जनता सरकार को जनता की आँखों में गिरा दिया।
::आँखों में धूल झोंकना-(धोखा देना)- शिवाजी मुगल पहरेदारों की आँखों में धूल झोंककर बंदीगृह से बाहर निकल गए।
::आँख चुराना-(छिपना)- आजकल वह मुझसे आँखें चुराता फिरता है।
::आँख मारना-(इशारा करना)-गवाह मेरे भाई का मित्र निकला, उसने उसे आँख मारी, अन्यथा वह मेरे विरुद्ध गवाही दे देता।
::आँख तरसना-(देखने के लालायित होना)- तुम्हें देखने के लिए तो मेरी आँखें तरस गई।
::आँख फेर लेना-(प्रतिकूल होना)- उसने आजकल मेरी ओर से आँखें फेर ली हैं।
::आँख बिछाना-(प्रतीक्षा करना)- लोकनायक जयप्रकाश नारायण जिधर जाते थे उधर ही जनता उनके लिए आँखें बिछाए खड़ी होती थी।
::आँखें सेंकना-(सुंदर वस्तु को देखते रहना)- आँख सेंकते रहोगे या कुछ करोगे भी
::आँखें चार होना-(प्रेम होना,आमना-सामना होना)- आँखें चार होते ही वह खिड़की पर से हट गई।
::आँखों का तारा-(अतिप्रिय)-आशीष अपनी माँ की आँखों का तारा है।
::आँख उठाना-(देखने का साहस करना)- अब वह कभी भी मेरे सामने आँख नहीं उठा सकेगा।
::आँख खुलना-(होश आना)- जब संबंधियों ने उसकी सारी संपत्ति हड़प ली तब उसकी आँखें खुलीं।
::आँख लगना-(नींद आना अथवा व्यार होना)- बड़ी मुश्किल से अब उसकी आँख लगी है। आजकल आँख लगते देर नहीं होती।
::आँखों पर परदा पड़ना-(लोभ के कारण सचाई न दीखना)- जो दूसरों को ठगा करते हैं, उनकी आँखों पर परदा पड़ा हुआ है। इसका फल उन्हें अवश्य मिलेगा।
::आँखों का काटा-(अप्रिय व्यक्ति)- अपनी कुप्रवृत्तियों के कारण राजन पिताजी की आँखों का काँटा बन गया।
::आँखों में समाना-(दिल में बस जाना)- गिरधर मीरा की आँखों में समा गया।
::कलेजे पर हाथ रखना-(अपने दिल से पूछना)- अपने कलेजे पर हाथ रखकर कहो कि क्या तुमने पैन नहीं तोड़ा।
::कलेजा जलना-(तीव्र असंतोष होना)- उसकी बातें सुनकर मेरा कलेजा जल उठा।
::कलेजा ठंडा होना-(संतोष हो जाना)- डाकुओं को पकड़ा हुआ देखकर गाँव वालों का कलेजा ठंढा हो गया।
::कलेजा थामना-(जी कड़ा करना)- अपने एकमात्र युवा पुत्र की मृत्यु पर माता-पिता कलेजा थामकर रह गए।
::कलेजे पर पत्थर रखना-(दुख में भी धीरज रखना)- उस बेचारे की क्या कहते हों, उसने तो कलेजे पर पत्थर रख लिया है।
:: कलेजे पर साँप लोटना-(ईर्ष्या से जलना)- श्रीराम के राज्याभिषेक का समाचार सुनकर दासी मंथरा के कलेजे पर साँप लोटने लगा।
:: कान भरना-(चुगली करना)- अपने साथियों के विरुद्ध अध्यापक के कान भरने वाले विद्यार्थी अच्छे नहीं होते।
::कान कतरना-(बहुत चतुर होना)- वह तो अभी से बड़े-बड़ों के कान कतरता है।
::कान का कच्चा-(सुनते ही किसी बात पर विश्वास करना)- जो मालिक कान के कच्चे होते हैं वे भले कर्मचारियों पर भी विश्वास नहीं करते।
:: कान पर जूँ तक न रेंगना-(कुछ असर न होना)-माँ ने गौरव को बहुत समझाया, किन्तु उसके कान पर जूँ तक नहीं रेंगी।
:: कानोंकान खबर न होना-(बिलकुल पता न चलना)-सोने के ये बिस्कुट ले जाओ, किसी को कानोंकान खबर न हो।
:: नाक में दम करना-(बहुत तंग करना)- आतंकवादियों ने सरकार की नाक में दम कर रखा है।
:: नाक रखना-(मान रखना)- सच पूछो तो उसने सच कहकर मेरी नाक रख ली।
:: नाक रगड़ना-(दीनता दिखाना)-गिरहकट ने सिपाही के सामने खूब नाक रगड़ी, पर उसने उसे छोड़ा नहीं।
:: नाक पर मक्खी न बैठने देना-(अपने पर आँच न आने देना)-कितनी ही मुसीबतें उठाई, पर उसने नाक पर मक्खी न बैठने दी।
:: नाक कटना-(प्रतिष्ठा नष्ट होना)- अरे भैया आजकल की औलाद तो खानदान की नाक काटकर रख देती है।
:: मुँह की खाना-(हार मानना)-पड़ोसी के घर के मामले में दखल देकर हरद्वारी को मुँह की खानी पड़ी।
:: मुँह में पानी भर आना-(दिल ललचाना)- लड्डुओं का नाम सुनते ही पंडितजी के मुँह में पानी भर आया।
:: मुँह खून लगना-(रिश्वत लेने की आदत पड़ जाना)- उसके मुँह खून लगा है, बिना लिए वह काम नहीं करेगा।
:: मुँह छिपाना-(लज्जित होना)- मुँह छिपाने से काम नहीं बनेगा, कुछ करके भी दिखाओ।
:: मुँह रखना-(मान रखना)-मैं तुम्हारा मुँह रखने के लिए ही प्रमोद के पास गया था, अन्यथा मुझे क्या आवश्यकता थी।
:: मुँहतोड़ जवाब देना-(कड़ा उत्तर देना)- श्याम मुँहतोड़ जवाब सुनकर फिर कुछ नहीं बोला।
:: मुँह पर कालिख पोतना-(कलंक लगाना)-बेटा तुम्हारे कुकर्मों ने मेरे मुँह पर कालिख पोत दी है।
:: मुँह उतरना-(उदास होना)-आज तुम्हारा मुँह क्यों उतरा हुआ है।
:: मुँह ताकना-(दूसरे पर आश्रित होना)-अब गेहूँ के लिए हमें अमेरिका का मुँह नहीं ताकना पड़ेगा।
:: मुँह बंद करना-(चुप कर देना)-आजकल रिश्वत ने बड़े-बड़े अफसरों का मुँह बंद कर रखा है।
:: दाँत पीसना-(बहुत ज्यादा गुस्सा करना)- भला मुझ पर दाँत क्यों पीसते हो? शीशा तो शंकर ने तोड़ा है।
:: दाँत खट्टे करना-(बुरी तरह हराना)- भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तानी सैनिकों के दाँत खट्टे कर दिए।
:: दाँत काटी रोटी-(घनिष्ठता, पक्की मित्रता)- कभी राम और श्याम में दाँत काटी रोटी थी पर आज एक-दूसरे के जानी दुश्मन है।
:: गरदन झुकाना-(लज्जित होना)- मेरा सामना होते ही उसकी गरदन झुक गई।
:: गरदन पर सवार होना-(पीछे पड़ना)- मेरी गरदन पर सवार होने से तुम्हारा काम नहीं बनने वाला है।
:: गरदन पर छुरी फेरना-(अत्याचार करना)-उस बेचारे की गरदन पर छुरी फेरते तुम्हें शरम नहीं आती, भगवान इसके लिए तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेंगे।
:: गला घोंटना-(अत्याचार करना)- जो सरकार गरीबों का गला घोंटती है वह देर तक नहीं टिक सकती।
:: गला फँसाना-(बंधन में पड़ना)- दूसरों के मामले में गला फँसाने से कुछ हाथ नहीं आएगा।
:: गले मढ़ना-(जबरदस्ती किसी को कोई काम सौंपना)- इस बुद्धू को मेरे गले मढ़कर लालाजी ने तो मुझे तंग कर डाला है।
:: गले का हार-(बहुत प्यारा)- तुम तो उसके गले का हार हो, भला वह तुम्हारे काम को क्यों मना करने लगा।
:: सिर पर भूत सवार होना-(धुन लगाना)-तुम्हारे सिर पर तो हर समय भूत सवार रहता है।
:: सिर पर मौत खेलना-(मृत्यु समीप होना)- विभीषण ने रावण को संबोधित करते हुए कहा, ‘भैया ! मुझे क्या डरा रहे हो ? तुम्हारे सिर पर तो मौत खेल रही है‘।
:: सिर पर खून सवार होना-(मरने-मारने को तैयार होना)- अरे, बदमाश की क्या बात करते हो ? उसके सिर पर तो हर समय खून सवार रहता है।
:: सिर-धड़ की बाजी लगाना-(प्राणों की भी परवाह न करना)- भारतीय वीर देश की रक्षा के लिए सिर-धड़ की बाजी लगा देते हैं।
:: सिर नीचा करना-(लजा जाना)-मुझे देखते ही उसने सिर नीचा कर लिया।
:: हाथ खाली होना-(रुपया-पैसा न होना)- जुआ खेलने के कारण राजा नल का हाथ खाली हो गया था।
:: हाथ खींचना-(साथ न देना)-मुसीबत के समय नकली मित्र हाथ खींच लेते हैं।
:: हाथ पे हाथ धरकर बैठना-(निकम्मा होना)- उद्यमी कभी भी हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठते हैं, वे तो कुछ करके ही दिखाते हैं।
:: हाथों के तोते उड़ना-(दुख से हैरान होना)- भाई के निधन का समाचार पाते ही उसके हाथों के तोते उड़ गए।
:: हाथोंहाथ-(बहुत जल्दी)-यह काम हाथोंहाथ हो जाना चाहिए।
:: हाथ मलते रह जाना-(पछताना)- जो बिना सोचे-समझे काम शुरू करते है वे अंत में हाथ मलते रह जाते हैं।
:: हाथ साफ करना-(चुरा लेना)- ओह ! किसी ने मेरी जेब पर हाथ साफ कर दिया।
:: हाथ-पाँव मारना-(प्रयास करना)- हाथ-पाँव मारने वाला व्यक्ति अंत में अवश्य सफलता प्राप्त करता है।
:: हाथ डालना-(शुरू करना)- किसी भी काम में हाथ डालने से पूर्व उसके अच्छे या बुरे फल पर विचार कर लेना चाहिए।
:: हवा लगना-(असर पड़ना)-आजकल भारतीयों को भी पश्चिम की हवा लग चुकी है।
:: हवा से बातें करना-(बहुत तेज दौड़ना)- राणा प्रताप ने ज्यों ही लगाम हिलाई, चेतक हवा से बातें करने लगा।
:: हवाई किले बनाना-(झूठी कल्पनाएँ करना)- हवाई किले ही बनाते रहोगे या कुछ करोगे भी ?
:: हवा हो जाना-(गायब हो जाना)- देखते-ही-देखते मेरी साइकिल न जाने कहाँ हवा हो गई ?
:: पानी-पानी होना-(लज्जित होना)-ज्योंही सोहन ने माताजी के पर्स में हाथ डाला कि ऊपर से माताजी आ गई। बस, उन्हें देखते ही वह पानी-पानी हो गया।
:: पानी में आग लगाना-(शांति भंग कर देना)-तुमने तो सदा पानी में आग लगाने का ही काम किया है।
:: पानी फेर देना-(निराश कर देना)-उसने तो मेरी आशाओं पर पानी पेर दिया।
:: पानी भरना-(तुच्छ लगना)-तुमने तो जीवन-भर पानी ही भरा है।
:: अँगूठा दिखाना-(देने से साफ इनकार कर देना)-सेठ रामलाल ने धर्मशाला के लिए पाँच हजार रुपए दान देने को कहा था, किन्तु जब मैनेजर उनसे मांगने गया तो उन्होंने अँगूठा दिखा दिया।
:: अगर-मगर करना-(टालमटोल करना)-अगर-मगर करने से अब काम चलने वाला नहीं है। बंधु !
:: अंगारे बरसाना-(अत्यंत गुस्से से देखना)-अभिमन्यु वध की सूचना पाते ही अर्जुन के नेत्र अंगारे बरसाने लगे।
:: आड़े हाथों लेना-(अच्छी तरह काबू करना)-श्रीकृष्ण ने कंस को आड़े हाथों लिया।
:: आकाश से बातें करना-(बहुत ऊँचा होना)-टी.वी.टावर तो आकाश से बाते करती है।
::ईद का चाँद-(बहुत कम दीखना)-मित्र आजकल तो तुम ईद का चाँद हो गए हो, कहाँ रहते हो ?
:: उँगली पर नचाना-(वश में करना)-आजकल की औरतें अपने पतियों को उँगलियों पर नचाती हैं।
:: कलई खुलना-(रहस्य प्रकट हो जाना)-उसने तो तुम्हारी कलई खोलकर रख दी।
:: काम तमाम करना-(मार देना)- रानी लक्ष्मीबाई ने पीछा करने वाले दोनों अंग्रेजों का काम तमाम कर दिया।
:: कुत्ते की मौत करना-(बुरी तरह से मरना)-राष्ट्रद्रोही सदा कुत्ते की मौत मरते हैं।
:: कोल्हू का बैल-(निरंतर काम में लगे रहना)-कोल्हू का बैल बनकर भी लोग आज भरपेट भोजन नहीं पा सकते। ::खाक छानना-(दर-दर भटकना)-खाक छानने से तो अच्छा है एक जगह जमकर काम करो।
:: गड़े मुरदे उखाड़ना-(पिछली बातों को याद करना)-गड़े मुरदे उखाड़ने से तो अच्छा है कि अब हम चुप हो जाएँ।
:: गुलछर्रे उड़ाना-(मौज करना)-आजकल तुम तो दूसरे के माल पर गुलछर्रे उड़ा रहे हो।
:: घास खोदना-(फुजूल समय बिताना)-सारी उम्र तुमने घास ही खोदी है।
:: चंपत होना-(भाग जाना)-चोर पुलिस को देखते ही चंपत हो गए।
:: चौकड़ी भरना-(छलाँगे लगाना)-हिरन चौकड़ी भरते हुए कहीं से कहीं जा पहुँचे।
:: छक्के छुडा़ना-(बुरी तरह पराजित करना)-पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गोरी के छक्के छुड़ा दिए।
:: टका-सा जवाब देना-(कोरा उत्तर देना)-आशा थी कि कहीं वह मेरी जीविका का प्रबंध कर देगा, पर उसने तो देखते ही टका-सा जवाब दे दिया।
:: टोपी उछालना-(अपमानित करना)-मेरी टोपी उछालने से उसे क्या मिलेगा?
:: तलवे चाटने-(खुशामद करना)-तलवे चाटकर नौकरी करने से तो कहीं डूब मरना अच्छा है।
:: थाली का बैंगन-(अस्थिर विचार वाला)- जो लोग थाली के बैगन होते हैं, वे किसी के सच्चे मित्र नहीं होते।
:: दाने-दाने को तरसना-(अत्यंत गरीब होना)-बचपन में मैं दाने-दाने को तरसता फिरा, आज ईश्वर की कृपा है।
:: दौड़-धूप करना-(कठोर श्रम करना)-आज के युग में दौड़-धूप करने से ही कुछ काम बन पाता है।
:: धज्जियाँ उड़ाना-(नष्ट-भ्रष्ट करना)-यदि कोई भी राष्ट्र हमारी स्वतंत्रता को हड़पना चाहेगा तो हम उसकी धज्जियाँ उड़ा देंगे।
:: नमक-मिर्च लगाना-(बढ़ा-चढ़ाकर कहना)-आजकल समाचारपत्र किसी भी बात को इस प्रकार नमक-मिर्च लगाकर लिखते हैं कि जनसाधारण उस पर विश्वास करने लग जाता है।
:: नौ-दो ग्यारह होना-(भाग जाना)- बिल्ली को देखते ही चूहे नौ-दो ग्यारह हो गए। 28. फूँक-फूँककर कदम रखना-(सोच-समझकर कदम बढ़ाना)-जवानी में फूँक-फूँककर कदम रखना चाहिए।
:: बाल-बाल बचना-(बड़ी कठिनाई से बचना)-गाड़ी की टक्कर होने पर मेरा मित्र बाल-बाल बच गया।
:: भाड़ झोंकना-(योंही समय बिताना)-दिल्ली में आकर भी तुमने तीस साल तक भाड़ ही झोंका है।
:: मक्खियाँ मारना-(निकम्मे रहकर समय बिताना)-यह समय मक्खियाँ मारने का नहीं है, घर का कुछ काम-काज ही कर लो।
:: माथा ठनकना-(संदेह होना)- सिंह के पंजों के निशान रेत पर देखते ही गीदड़ का माथा ठनक गया।
:: मिट्टी खराब करना-(बुरा हाल करना)-आजकल के नौजवानों ने बूढ़ों की मिट्टी खराब कर रखी है।
:: रंग उड़ाना-(घबरा जाना)-काले नाग को देखते ही मेरा रंग उड़ गया।
:: रफूचक्कर होना-(भाग जाना)-पुलिस को देखते ही बदमाश रफूचक्कर हो गए।
:: लोहे के चने चबाना-(बहुत कठिनाई से सामना करना)- मुगल सम्राट अकबर को राणाप्रताप के साथ टक्कर लेते समय लोहे के चने चबाने पड़े।
:: विष उगलना-(बुरा-भला कहना)-दुर्योधन को गांडीव धनुष का अपमान करते देख अर्जुन विष उगलने लगा।
:: श्रीगणेश करना-(शुरू करना)-आज बृहस्पतिवार है, नए वर्ष की पढाई का श्रीगणेश कर लो।
:: हजामत बनाना-(ठगना)-ये हिप्पी न जाने कितने भारतीयों की हजामत बना चुके हैं।
:: शैतान के कान कतरना-(बहुत चालाक होना)-तुम तो शैतान के भी कान कतरने वाले हो, बेचारे रामनाथ की तुम्हारे सामने बिसात ही क्या है ?
:: राई का पहाड़ बनाना-(छोटी-सी बात को बहुत बढ़ा देना)- तनिक-सी बात के लिए तुमने राई का पहाड़ बना दिया।



आँखों का तारा - बहुत प्यारा
आँखें बिछाना - स्वागत करना
आँखों में धूल झोंकना - धोखा देना
चंडूखाने की बातें करना - झूठी बातें होना
चंडाल चौकड़ी - दुष्टों का समूह
छिछा लेदर करना - दुर्दशा करना
टिप्पस लगाना - सिफारिश करना
टेक निभाना - प्रण पूरा करना
तारे गिनना - नींद न आना
त्रिशंकु होना - अधर में लटकना
मजा चखाना - बदला लेना
मन मसोसना - विवश होना
हाथ पसारना - मांगना
हाथ मलना - पछताना
हालत पतली होना - दयनीय दशा होना
सेमल का फूल होना - थोडें दिनों का असितत्व होना
सब्जबाग दिखाना - झूठी आशा देना
घी के दिए जलाना - प्रसन्न होना
घुटने टेकना - हार मानना
घड़ों पानी पड़ना - लजिज्त होना
चाँद का टुकड़ा होना - बहुत सुंदर होना
चिकना घड़ा होना - बात का असर न होना
चांदी काटना - अधिक लाभ कमाना
चांदी का जूता मारना - रिश्वत देना
छक्के छुड़ाना - परास्त कर देना
छप्पर फाड़कर देना - अनायास लाभ होना
छटी का दूध याद आना - अत्यधिक कठिन होना
छाती पर मूंग दलना - पास रहकर दिल दु:खाना
छूमन्तर होना - गायब हो जाना
छाती पर सांप लोटना - ईर्ष्या करना
जबान को लगाम देना - सोच समझकर बोलना
जान के लाले पड़ना - प्राण संकट में पड़ना
जी खट्टा होना - मन फिर जाना
जमीन पर पैर न रखना - अहंकार होना
जहर उगलना - बुराई करना
जान पर खेलना - प्राणों की बाजी लगाना
टेढ़ी खीर होना - कठिन कार्य
टांग अड़ाना - दखल देना
टें बोल जाना - मर जाना
ठकुर सुहाती कहना - खुशामद करना
डकार जाना - हड़प लेना
ढोल की पोल होना - खोखला होना
तीन तेरह होना - बिखर जाना
तलवार के घाट उतारना - मार डालना
थाली का बैगन होना - सिद्धांतहीन होना
दांत काटी रोटी होना - गहरी दोस्ती
दो -दो हाथ करना - लड़ना
धूप में बाल सफेद होना - अनुभव होना
धाक जमाना - प्रभावित करना
नाकों चने चबाना - बहुत सताना
नाक -भौं सिकोड़ना - अप्रसन्नता व्यक्त करना
पत्थर की लकीर होना - अमिट होना
पेट में दाढ़ी होना - कम उम्र में अधिक जानना
पौ बारह होना - खूब लाभ होना
कालानाग होना - बहुत घातक व्यक्ति
केर -बेर का संग होना - विपरीत मेल
धोंधा वसंत होना - मूर्ख व्यक्ति
घूरे के दिन फिरना - अच्छे दिन आना
आग बबूला होना - अत्यधिक क्रोध करना
आस्तिन का सांप होना - कपटी मित्र
आँखें दिखाना - धमकाना
अंगूठा दिखाना - मना कर देना
अक्ल सठियाना - बुद्धि भ्रष्ट होना
अंगूठे पर रखना - परवाह न करना
अपना उल्लू सीधा करना - अपना काम बना लेना
अपनी खिचड़ी अलग पकाना - सबसे अलग रहना
आसमान टूट पड़ना - अचानक मुसीबत आ जाना
आसमान पर दिमाग होना - अहंकारी होना
ईंट का जवाब पत्थर से देना - करारा जवाब देना
ईद का चाँद होना - बहुत कम दिखाई देना
ईंट से ईंट बजाना - ध्वस्त कर देना
उल्टे छुरे से मूंढ़ना - ठग लेना
उड़ती चिड़िया के पंख गिनना - अत्यन्त चतुर होना
ऊंट के मुंह में जीरा होना - अधिक खुराक वाले को कम देना
एड़ी चोटी का जोर लगाना - बहुत प्रयास करना
ओखली में सिर देना - जान बूझकर मुसीबत मोल लेना
औधी खोपड़ी का होना - बेवकूफ होना
कलेजा ठण्डा होना - शांत होना
कलेजे पर पत्थर रखना - दिल मजबूत करना
कलेजे पर सांप लोटना - अन्तर्दाह होना
कलेजा मुंह को आना - घबरा जाना
काठ का उल्लू होना - मूर्ख होना
कान काटना - चतुर होना
कान खड़े होना - सावधान हो जाना
काम तमाम करना - मार डालना
कुएं में बांस डालना - बहुत खोजबीन करना
कलई खुलना - पोल खुलना
कलेजा फटना - दुःख होना
कीचड़ उछालना - बदनाम करना
खून खौलना - क्रोध आना
खून का प्यासा होना - प्राण लेने को तत्पर होना
खाक छानना - भटकना
खटाई में पड़ना - व्यवधान आ जाना
गाल बजाना - डींग हांकना
गूलर का फूल होना - दुर्लभ होना
गांठ बांधना - याद रखना
गुड़ गोबर कर देना - काम बिगाड़ देना
घाट -घाट का पानी पीना - अनुभवी होना
भुजा उठाकर कहना - प्रतिज्ञा करना
हाथ के तोते उड़ना - घबरा जाना




               

12. लोकोक्तियाँ

1. अपनी करनी पार उतरनी = जैसा करना वैसा भरना
2. आधा तीतर आधा बटेर = बेतुका मेल
3. अधजल गगरी छलकत जाए = थोड़ी विद्या या थोड़े धन को पाकर वाचाल हो जाना
4. अंधों में काना राजा = अज्ञानियों में अल्पज्ञ की मान्यता होना
5. अपनी अपनी ढफली अपना अपना राग = अलग अलग विचार होना
6. अक्ल बड़ी या भैंस = शारीरिक शक्ति की तुलना में बौद्धिक शक्ति की श्रेष्ठता होना
7. आम के आम गुठलियों के दाम = दोहरा लाभ होना
8. अपने मुहं मियाँ मिट्ठू बनना = स्वयं की प्रशंसा करना
9. आँख का अँधा गाँठ का पूरा = धनी मूर्ख
10. अंधेर नगरी चौपट राजा = मूर्ख के राजा के राज्य में अन्याय होना
11. आ बैल मुझे मार = जान बूझकर लड़ाई मोल लेना
12. आगे नाथ न पीछे पगहा = पूर्ण रूप से आज़ाद होना
13. अपना हाथ जगन्नाथ = अपना किया हुआ काम लाभदायक होता है
14. अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत = पहले सावधानी न बरतना और बाद में पछताना
15. आगे कुआँ पीछे खाई = सभी और से विपत्ति आना
16. ऊंची दूकान फीका पकवान = मात्र दिखावा
17. उल्टा चोर कोतवाल को डांटे = अपना दोष दूसरे के सर लगाना
18. उंगली पकड़कर पहुंचा पकड़ना = धीरे धीरे साहस बढ़ जाना
19. उलटे बांस बरेली को = विपरीत कार्य करना
20. उतर गयी लोई क्या करेगा कोई = इज्ज़त जाने पर डर कैसा
21. ऊधौ का लेना न माधो का देना = किसी से कोई सम्बन्ध न रखना
22. ऊँट की चोरी निहुरे - निहुरे = बड़ा काम लुक - छिप कर नहीं होता
23. एक पंथ दो काज = एक काम से दूसरा काम
24. एक थैली के चट्टे बट्टे = समान प्रकृति वाले
25. एक म्यान में दो तलवार = एक स्थान पर दो समान गुणों या शक्ति वाले व्यक्ति साथ नहीं रह सकते
26. एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है = एक खराब व्यक्ति सारे समाज को बदनाम कर देता है
27. एक हाथ से ताली नहीं बजती = झगड़ा दोनों और से होता है
28. एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा = दुष्ट व्यक्ति में और भी दुष्टता का समावेश होना
29. एक अनार सौ बीमार = कम वस्तु , चाहने वाले अधिक
30. एक बूढ़े बैल को कौन बाँध भुस देय = अकर्मण्य को कोई भी नहीं रखना चाहता
31. ओखली में सर दिया तो मूसलों से क्या डरना = जान बूझकर प्राणों की संकट में डालने वाले प्राणों की चिंता नहीं करते
32. अंगूर खट्टे हैं = वस्तु न मिलने पर उसमें दोष निकालना
33. कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली = बेमेल एकीकरण
34. काला अक्षर भैंस बराबर = अनपढ़ व्यक्ति
35. कोयले की दलाली में मुहं काला = बुरे काम से बुराई मिलना
36. काम का न काज का दुश्मन अनाज का = बिना काम किये बैठे बैठे खाना
37. काठ की हंडिया बार बार नहीं चढ़ती= कपटी व्यवहार हमेशा नहीं किया जा सकता
38. का बरखा जब कृषि सुखाने = काम बिगड़ने पर सहायता व्यर्थ होती है
39. कभी नाव गाड़ी पर कभी गाड़ी नाव पर = समय पड़ने पर एक दुसरे की मदद करना
40. खोदा पहाड़ निकली चुहिया = कठिन परिश्रम का तुच्छ परिणाम
41. खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे = अपनी शर्म छिपाने के लिए व्यर्थ का काम करना
42. खग जाने खग की ही भाषा = समान प्रवृति वाले लोग एक दुसरे को समझ पाते हैं
43. गंजेड़ी यार किसके, दम लगाई खिसके = स्वार्थ साधने के बाद साथ छोड़ देते हैं
44. गुड़ खाए गुलगुलों से परहेज = ढोंग रचना
45. घर की मुर्गी दाल बराबर = अपनी वस्तु का कोई महत्व नहीं
46. घर का भेदी लंका ढावे = घर का शत्रु अधिक खतरनाक होता है
47. घर खीर तो बाहर भी खीर = अपना घर संपन्न हो तो बाहर भी सम्मान मिलता है
48. चिराग तले अँधेरा = अपना दोष स्वयं दिखाई नहीं देता
49. चोर की दाढ़ी में तिनका = अपराधी व्यक्ति सदा सशंकित रहता है
50. चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए = कंजूस होना
51. चोर चोर मौसेरे भाई = एक से स्वभाव वाले व्यक्ति
52. जल में रहकर मगर से बैर = स्वामी से शत्रुता नहीं करनी चाहिए
53. जाके पाँव न फटी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई = भुक्तभोगी ही दूसरों का दुःख जान पाता है
54. थोथा चना बाजे घना = ओछा आदमी अपने महत्व का अधिक प्रदर्शन करता है
55. छाती पर मूंग दलना = कोई ऐसा काम होना जिससे आपको और दूसरों को कष्ट पहुंचे
56. दाल भात में मूसलचंद = व्यर्थ में दखल देना
57. धोबी का कुत्ता घर का न घाट का = कहीं का न रहना
58. नेकी और पूछ पूछ = बिना कहे ही भलाई करना
59. नीम हकीम खतरा ए जान = थोडा ज्ञान खतरनाक होता है
60. दूध का दूध पानी का पानी = ठीक ठीक न्याय करना
61. बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद = गुणहीन गुण को नहीं पहचानता
62. पर उपदेश कुशल बहुतेरे = दूसरों को उपदेश देना सरल है
63. नाम बड़े और दर्शन छोटे = प्रसिद्धि के अनुरूप गुण न होना
64. भागते भूत की लंगोटी सही = जो मिल जाए वही काफी है
65. मान न मान मैं तेरा मेहमान = जबरदस्ती गले पड़ना
66. सर मुंडाते ही ओले पड़ना = कार्य प्रारंभ होते ही विघ्न आना
67. हाथ कंगन को आरसी क्या = प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या जरूरत है
68. होनहार बिरवान के होत चिकने पात = होनहार व्यक्ति का बचपन में ही पता चल जाता है
69. बद अच्छा बदनाम बुरा = बदनामी बुरी चीज़ है
70. मन चंगा तो कठौती में गंगा = शुद्ध मन से भगवान प्राप्त होते हैं
71. आँख का अँधा, नाम नैनसुख = नाम के विपरीत गुण होना
72. ईश्वर की माया, कहीं धूप कहीं छाया = संसार में कहीं सुख है तो कहीं दुःख है
73. उतावला सो बावला = मूर्ख व्यक्ति जल्दबाजी में काम करते हैं
74. ऊसर बरसे तृन नहिं जाए = मूर्ख पर उपदेश का प्रभाव नहीं पड़ता
75. ओछे की प्रीति बालू की भीति = ओछे व्यक्ति से मित्रता टिकती नहीं है
76. कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा = सिद्धांतहीन गठबंधन
77. कानी के ब्याह में सौ जोखिम = कमी होने पर अनेक बाधाएं आती हैं
78. को उन्तप होब ध्यहिंका हानी = परिवर्तन का प्रभाव न पड़ना
79. खाल उठाए सिंह की स्यार सिंह नहिं होय = बाहरी रूप बदलने से गुण नहीं बदलते
80. गागर में सागर भरना = कम शब्दों में अधिक बात करना
81. घर में नहीं दाने , अम्मा चली भुनाने = सामर्थ्य से बाहर कार्य करना
82. चौबे गए छब्बे बनने दुबे बनकर आ गए = लाभ के बदले हानि
83. चन्दन विष व्याप्त नहीं लिपटे रहत भुजंग = सज्जन पर कुसंग का प्रभाव नहीं पड़ता
84. जैसे नागनाथ वैसे सांपनाथ = दुष्टों की प्रवृति एक जैसी होना
85. डेढ़ पाव आटा पुल पै रसोई = थोड़ी सम्पत्ति पर भारी दिखावा
86. तन पर नहीं लत्ता पान खाए अलबत्ता = झूठी रईसी दिखाना
87. पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं = पराधीनता में सुख नहीं है
88. प्रभुता पाहि काहि मद नहीं = अधिकार पाकर व्यक्ति घमंडी हो जाता है
89. मेंढकी को जुकाम = अपनी औकात से ज्यादा नखरे
90. शौक़ीन बुढिया चटाई का लहंगा = विचित्र शौक
91. सूरदास खलकारी का या चिदै न दूजो रंग = दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता
92. तिरिया तेल हमीर हठ चढ़े न दूजी बार = दृढ प्रतिज्ञ लोग अपनी बात पे डटे रहते हैं
93. सौ सुनार की, एक लुहार की = निर्बल की सौ चोटों की तुलना में बलवान की एक चोट काफी है
94. भई गति सांप छछूंदर केरी = असमंजस की स्थिति में पड़ना
95. पुचकारा कुत्त सिर चढ़े = ओछे लोग मुहं लगाने पर अनुचित लाभ उठाते हैं
96. मुहं में राम बगल में छुरी = कपटपूर्ण व्यवहार
97. जंगल में मोर नाचा किसने देखा = गुण की कदर गुणवानों के बीच ही होती है
98. चट मंगनी पट ब्याह = शुभ कार्य तुरंत संपन्न कर देना चाहिए
99. ऊंट बिलाई लै गई तौ हाँजी-हाँजी कहना = शक्तिशाली की अनुचित बात का समर्थन करना
100. तीन लोक से मथुरा न्यारी = सबसे अलग रहना

1. अधजल गगरी छलकत जाए-(कम गुण वाला व्यक्ति दिखावा बहुत करता है)- श्याम बातें तो ऐसी करता है जैसे हर विषय में मास्टर हो, वास्तव में उसे किसी विषय का भी पूरा ज्ञान नहीं-अधजल गगरी छलकत जाए।
2. अब पछताए होत क्या, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत-(समय निकल जाने पर पछताने से क्या लाभ)- सारा साल तुमने पुस्तकें खोलकर नहीं देखीं। अब पछताए होत क्या, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत।
3. आम के आम गुठलियों के दाम-(दुगुना लाभ)- हिन्दी पढ़ने से एक तो आप नई भाषा सीखकर नौकरी पर पदोन्नति कर सकते हैं, दूसरे हिन्दी के उच्च साहित्य का रसास्वादन कर सकते हैं, इसे कहते हैं-आम के आम गुठलियों के दाम।
4. ऊँची दुकान फीका पकवान-(केवल ऊपरी दिखावा करना)- कनॉटप्लेस के अनेक स्टोर बड़े प्रसिद्ध है, पर सब घटिया दर्जे का माल बेचते हैं। सच है, ऊँची दुकान फीका पकवान।
5. घर का भेदी लंका ढाए-(आपसी फूट के कारण भेद खोलना)-कई व्यक्ति पहले कांग्रेस में थे, अब जनता (एस) पार्टी में मिलकर काग्रेंस की बुराई करते हैं। सच है, घर का भेदी लंका ढाए।
6. जिसकी लाठी उसकी भैंस-(शक्तिशाली की विजय होती है)- अंग्रेजों ने सेना के बल पर बंगाल पर अधिकार कर लिया था-जिसकी लाठी उसकी भैंस।
7. जल में रहकर मगर से वैर-(किसी के आश्रय में रहकर उससे शत्रुता मोल लेना)- जो भारत में रहकर विदेशों का गुणगान करते हैं, उनके लिए वही कहावत है कि जल में रहकर मगर से वैर।
8. थोथा चना बाजे घना-(जिसमें सत नहीं होता वह दिखावा करता है)- गजेंद्र ने अभी दसवीं की परीक्षा पास की है, और आलोचना अपने बड़े-बड़े गुरुजनों की करता है। थोथा चना बाजे घना।
9. दूध का दूध पानी का पानी-(सच और झूठ का ठीक फैसला)- सरपंच ने दूध का दूध,पानी का पानी कर दिखाया, असली दोषी मंगू को ही दंड मिला।
10. दूर के ढोल सुहावने-(जो चीजें दूर से अच्छी लगती हों)- उनके मसूरी वाले बंगले की बहुत प्रशंसा सुनते थे किन्तु वहाँ दुर्गंध के मारे तंग आकर हमारे मुख से निकल ही गया-दूर के ढोल सुहावने।
11. न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी-(कारण के नष्ट होने पर कार्य न होना)- सारा दिन लड़के आमों के लिए पत्थर मारते रहते थे। हमने आँगन में से आम का वृक्ष की कटवा दिया। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।
12. नाच न जाने आँगन टेढ़ा-(काम करना नहीं आना और बहाने बनाना)-जब रवींद्र ने कहा कि कोई गीत सुनाइए, तो सुनील बोला, ‘आज समय नहीं है’। फिर किसी दिन कहा तो कहने लगा, ‘आज मूड नहीं है’। सच है, नाच न जाने आँगन टेढ़ा।
13. बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख-(माँगे बिना अच्छी वस्तु की प्राप्ति हो जाती है, माँगने पर साधारण भी नहीं मिलती)- अध्यापकों ने माँगों के लिए हड़ताल कर दी, पर उन्हें क्या मिला ? इनसे तो बैक कर्मचारी अच्छे रहे, उनका भत्ता बढ़ा दिया गया। बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख।
14. मान न मान मैं तेरा मेहमान-(जबरदस्ती किसी का मेहमान बनना)-एक अमेरिकन कहने लगा, मैं एक मास आपके पास रहकर आपके रहन-सहन का अध्ययन करूँगा। मैंने मन में कहा, अजब आदमी है, मान न मान मैं तेरा मेहमान।
15. मन चंगा तो कठौती में गंगा-(यदि मन पवित्र है तो घर ही तीर्थ है)-भैया रामेश्वरम जाकर क्या करोगे ? घर पर ही ईशस्तुति करो। मन चंगा तो कठौती में गंगा।
16. दोनों हाथों में लड्डू-(दोनों ओर लाभ)- महेंद्र को इधर उच्च पद मिल रहा था और उधर अमेरिका से वजीफा उसके तो दोनों हाथों में लड्डू थे।
17. नया नौ दिन पुराना सौ दिन-(नई वस्तुओं का विश्वास नहीं होता, पुरानी वस्तु टिकाऊ होती है)- अब भारतीय जनता का यह विश्वास है कि इस सरकार से तो पहली सरकार फिर भी अच्छी थी। नया नौ दिन, पुराना नौ दिन।
18. बगल में छुरी मुँह में राम-राम-(भीतर से शत्रुता और ऊपर से मीठी बातें)- साम्राज्यवादी आज भी कुछ राष्ट्रों को उन्नति की आशा दिलाकर उन्हें अपने अधीन रखना चाहते हैं, परन्तु अब सभी देश समझ गए हैं कि उनकी बगल में छुरी और मुँह में राम-राम है।
19. लातों के भूत बातों से नहीं मानते-(शरारती समझाने से वश में नहीं आते)- सलीम बड़ा शरारती है, पर उसके अब्बा उसे प्यार से समझाना चाहते हैं। किन्तु वे नहीं जानते कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते।
20. सहज पके जो मीठा होय-(धीरे-धीरे किए जाने वाला कार्य स्थायी फलदायक होता है)- विनोबा भावे का विचार था कि भूमि सुधार धीरे-धीरे और शांतिपूर्वक लाना चाहिए क्योंकि सहज पके सो मीठा होय।
21. साँप मरे लाठी न टूटे-(हानि भी न हो और काम भी बन जाए)- घनश्याम को उसकी दुष्टता का ऐसा मजा चखाओ कि बदनामी भी न हो और उसे दंड भी मिल जाए। बस यही समझो कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
22. अंत भला सो भला-(जिसका परिणाम अच्छा है, वह सर्वोत्तम है)- श्याम पढ़ने में कमजोर था, लेकिन परीक्षा का समय आते-आते पूरी तैयारी कर ली और परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसी को कहते हैं अंत भला सो भला।
23. चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए-(बहुत कंजूस होना)-महेंद्रपाल अपने बेटे को अच्छे कपड़े तक भी सिलवाकर नहीं देता। उसका तो यही सिद्धान्त है कि चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए।
24. सौ सुनार की एक लुहार की-(निर्बल की सैकड़ों चोटों की सबल एक ही चोट से मुकाबला कर देते है)- कौरवों ने भीम को बहुत तंग किया तो वह कौरवों को गदा से पीटने लगा-सौ सुनार की एक लुहार की।
25. सावन हरे न भादों सूखे-(सदैव एक-सी स्थिति में रहना)- गत चार वर्षों में हमारे वेतन व भत्ते में एक सौ रुपए की बढ़ोत्तरी हुई है। उधर 25 प्रतिशत दाम बढ़ गए हैं-भैया हमारी तो यही स्थिति रही है कि सावन हरे न भागों सूखे।



                

13. पर्यायवाची शब्द

हिंदी पर्यायवाची शब्द
1. असुर - दनुज, निशाचर, राक्षस ,दैत्य ,दानव ,रजनीचर ,यातुधान
2. अमृत - पीयूष , सुधा ,अमिय ,सोम ,सुरभोग ,मधु
3. अर्जुन - धनंजय , पार्थ , भारत ,गांडीवधारी ,कौन्तेय ,गुडाकेश
4. अरण्य - जंगल ,वन ,कान्तार ,कानन ,विपिन
5. अंग - अंश ,भाग ,हिस्सा ,अवयव
6. आँख - नेत्र ,चक्षु ,लोचन ,दृग ,अक्षि ,विलोचन
7. आम्र - आम ,रसाल ,सहकार, अतिसौरभ ,पिकवल्लभ
8. आकाश - अम्बर ,गगन ,नभ , व्योम , शून्य ,अनन्त ,आसमान ,अन्तरिक्ष
9. अनी - सेना ,फौज ,चमू ,दल ,कटक
10. इच्छा - कामना ,चाह , आकांक्षा ,मनोरथ ,स्पृहा ,वांछा ,ईहा ,अभिलाषा
11. इन्द्र - सुरेश ,सुरेन्द्र ,सुरपति ,शचीपति ,देवेन्द्र ,देवेश ,वासव ,पुरन्दर
12. कमल - राजीव ,पुण्डरीक ,जलज ,पंकज ,सरोज ,सरोरुह ,नलिन ,तामरस ,कंज,अरविन्द, अम्बुज ,सरसिज 13. किरण - अंशु ,रश्मि ,कर ,मयूख , मरीचि ,प्रभा ,अर्चि
14. कपड़ा - वस्त्र ,पट ,चीर ,अम्बर ,वसन
15. कुबेर - धनद ,धनेश ,धनाधिप ,राजराज ,यक्षपति
16. कामदेव - मनसिज ,मनोज ,काम ,मन्मथ ,मार ,अनंग ,पुष्पधन्वा ,मदन ,कंदर्प , मकरध्वज ,रतिनाथ ,मीनकेतु 17. कृष्ण - गोविन्द ,गोपाल ,माधव ,कंसारि ,यशोदानन्दन ,देवकीपुत्र ,वासुदेव ,नन्दनन्दन , हरि ,श्याम ,मुरारि ,राधावल्लभ ,यदुराज ,कान्ह ,कन्हैया
18. कल्पवृक्ष - भंडार ,सुरतरु ,पारिजात ,कल्पद्रुम ,कल्पतरु
19. कोयल - पिक ,परभृत ,कोकिल ,वसंतदूती ,वसंतप्रिय
20. गणेश - लम्बोदर ,गजपति ,गणपति ,एकदन्त ,विनायक ,गजवदन ,मोदकप्रिय , मूषकवाहन ,भवानीनन्दन ,गौरीसुत , गजानन
21. गधा - गदहा ,गर्दभ ,वैशाखनन्दन,रासभ ,खर ,धूसर
22. गंगा - भागीरथी ,जाह्नवी ,मन्दाकिनी ,विष्णुपदी ,देवापगा ,देवनदी ,सुरसरिता ,सुरसरि
23. गर्व - अहं ,अहंकार ,दर्प ,दम्भ ,अभिमान ,घमण्ड
24. गाय - धेनु ,गौ ,सुरभि ,गैया ,दोग्धी ,पयस्विनी ,गऊ
25. चतुर - दक्ष ,पटु ,कुशल ,नागर ,विज्ञ ,निपुण
26. चन्द्रमा -चन्द्र ,राकापति ,राकेश ,मयंक ,सोम ,शशि ,इन्दु ,मृगांक ,हिमकर ,सुधाकर , कलानिधि ,निशाकर 27. चोर - दस्यु ,तस्कर ,रजनीचर ,साहसिक ,खनक ,मोषक ,कुम्भिल
28. जमुना - यमुना ,रविजा ,कालिन्दी ,अर्कजा ,सूर्यसुता ,रवितनया ,तरणि-तनूजा, कृष्णा
29. जीभ - जिह्वा , रसना ,रसिका ,रसला ,रसज्ञा ,जबान
30. झण्डा - ध्वजा ,पताका ,केतु ,केतन ,ध्वज
31. द्रव्य - धन, दौलत ,वित्त ,संपत्ति ,सम्पदा ,विभूति
32. द्रौपदी - कृष्णा ,द्रुपदसुता ,पांचाली ,याज्ञसेनी ,सैरन्ध्री
33. धनुष- धनु ,चाप ,कमान ,शरासन, पिनाक ,कोदण्ड
34. नदी - सरिता ,तटिनी ,आपगा ,निम्नगा ,तरंगिणी ,वाहिनी ,स्रोतस्विनी
35. नाव - नौका ,तरणि ,तरी ,नैया ,वहित्र ,डोंगी
36. पृथ्वी - भू,भूमि ,इला ,धरती ,धरित्री ,मेदिनी ,अचला ,वसुधा ,वसुन्धरा ,उर्वी
37. पत्र - पत्ता ,दल ,पल्लव ,पर्ण ,किसलय
38. पण्डित - प्राज्ञ ,कोविद ,मनीषी ,विद्वान ,सुधी ,विचक्षण
39. पुष्प - फूल ,कुसुम, सुमन ,प्रसून ,पुहुप ,फुल्ल
40. प्रकाश - प्रभा ,कान्ति ,ज्योति ,उजाला ,द्युति
41. बाण - शर , शिलीमुख ,नाराच, विशिख ,इषु ,तीर
42. ब्रह्मा - विधि ,विधाता ,स्वयंभू ,चतुरानन ,चतुर्मुख ,कमलासन ,पितामह ,हिरण्यगर्भा
43. बिजली - चपला ,चंचला ,सौदामिनी ,विद्युत ,दामिनी ,तड़ित ,क्षणप्रभा ,बीजुरी
44. बन्दर - कपि ,वानर ,शाखामृग ,मर्कट ,हरि
45. वृक्ष - तरु ,विटप,पादप ,पेड़ ,रुख ,द्रुम
46. मित्र -सखा ,मीत ,दोस्त ,सहचर ,सुहृद
47. महेश - शिव ,शंकर ,भूतनाथ ,चन्द्रशेखर ,चन्द्रमौलि ,भोले ,रूद्र ,त्रिलोचन ,त्रिनेत्र , आशुतोष ,पशुपति ,शम्भु 48. मछली - मत्स्य ,मीन ,शफरी ,झष ,जलजीवन
49. मनुष्य - मनुज ,आदमी ,इंसान ,मानव ,मनुपुत्र ,नर, व्यक्ति
50. मदिरा -शराब ,मद्य ,सुरा ,सोमरस ,मधु ,आसव ,वारुणी ,हाला
51. माला - हार ,मालिका ,दाम ,गुणिका ,सुमिरनी ,माल्य
52. मोती - मुक्ता , मौक्तिक ,शशिप्रभा ,सीपिज
53. मुक्ति - मोक्ष ,कैवल्य ,परमपद ,सदगति ,निर्वाण ,अपवर्ग
54. मयूर - मोर ,नीलकंठ ,शिखी ,शिवसुतवाहन ,कलापी ,केकी
55. यम - यमराज ,कृतांत ,रविसुत ,धर्मराज ,काल ,अंतक ,जीवितेश ,सूर्यपुत्र ,दण्डधर
56. रात्रि - रात ,यामिनी ,निशा ,विभावरी ,रजनी ,शर्वरी ,क्षणदा ,रैन
57. लक्ष्मी - रमा ,चंचला ,विष्णुप्रिया ,कमला ,पदमा ,कमलासना ,पदमासना ,इन्दिरा , हरिप्रिया
58. सम्पूर्ण - सब ,पूरा ,पूर्ण ,निखिल ,अखिल ,नि:शेष ,सकल
59. सागर - समुद्र ,रत्नाकर ,नदीश ,पयोधि ,वारिधि ,जलधि ,उदधि ,जलनिधि ,नीरनिधि, पारावार ,सिंधु 60. सर्प - नाग ,भुजग ,भुजंग ,पन्नग ,उरग ,व्याल ,विषधर ,अहि ,फणी ,फणधर
61. सोना - स्वर्ण ,कंचन ,कांचन ,कनक , हेम ,जातरूप ,सुवर्ण ,हाटक
62. समूह - समुदाय ,वृन्द ,गण ,संघ ,पुंज ,दल ,झुण्ड
63. सूर्य - रवि ,अर्क ,भानु ,दिनेश ,दिवाकर ,भास्कर ,सविता ,आदित्य ,अंशुमाली , मार्तण्ड ,दिनकर
64. सिंह - हरि ,व्याघ्र ,शार्दूल ,केशरी ,कहेरी ,मृगेन्द्र ,मृगराज ,पंचमुख
65. सुन्दर - रुचिर ,चारू ,रम्य ,रमणीक ,मनभावन ,ललित ,आकर्षक ,मंजुल ,कलित , सुरम्य ,कमनीय ,सुहावना 66. सेविका - दासी ,नौकरानी ,परिचारिका ,भृत्या ,किंकरी ,अनुचरी
67. स्तन - पयोधर ,उरोज ,कुच ,वक्षोज
68. हिमालय - नगराज ,गिरीश ,गिरिवर ,पर्वतेश ,पर्वतराज ,हिमाद्रि ,हिमगिरी ,हिमवान
69. हाथी - हस्ती ,कुंजर ,नाग ,सिन्धुर ,दन्ती ,करि ,द्विरद , गयंद ,गज ,मातंग
70. हाथ - हस्त ,भुजा ,पाणि ,कर ,बाहु
71. हिरन - हरिण ,सारंग ,मृग ,कुरंग ,सुरभी
72. हवा - पवन ,वायु ,वात ,समीर ,प्रभंजन ,अनिल ,समीरण
73. हनुमान - पवनपुत्र ,पवनसुत ,कपीश ,बजरंगी ,महावीर ,आंजनेय ,मारुति ,पवनकुमार , रामदूत ,वज्रांगी ,जितेन्द्रिय
74. हंस - मराल ,चक्रांग ,कलहंस ,मानसीक
75. हितैषी - शुभेच्छु , हितकायी ,मंगलाकांक्षी ,शुभचिंतक ,हितचिन्तक
76. मुर्गा - कुक्कुट ,ताम्रचुड़ ,अरुणशिखा ,ताम्रशिख ,उपाकर
77. भ्रमर - अलि ,मधुकर ,भंवर ,भौंए ,षटपद ,भृंगी
78. धूल - रज ,माटी ,मिट्टी ,मृत्तिका ,रेणु ,धूलि
79. पत्थर - पाहन ,पाषण ,शिला ,प्रस्तर ,उपल ,अश्म
80. तारा - नक्षत्र ,सितारा ,उडु ,तारक
81. तलवार - असि ,कृपाण ,करवाल ,चन्द्रहास ,खड्ग
82. दांत - दन्त ,रद ,द्विज ,मुखनुर
83. बाल - केश ,कच ,कुंतल ,चिकुर ,जटा ,शिरोरुह
84. कली - मुकुल ,कलिका ,कोरक ,जालक
85. बहुत - प्रभूत ,प्रचुर ,अपरिमित ,अमित ,अपार ,विपुल
86. राधा - कृष्ण बल्लभ ,कृष्णप्रिया ,हरिप्रिया ,राधिका ,वृषभानुसुता ,वृषभानुदुलारी , वृषभानुजा ,बृजरानी 87. वर्षा - बारिश, बरसात ,पावस ,वृष्टि ,वर्षण
88. विवाह - ब्याह ,शादी ,पाणिग्रहण ,परिणय
89. सहेली - सखी ,आली ,अलि ,भटू ,सहचरी ,संगिनी ,सहचारिणी
90. साधु - साधू ,संत ,वैरागी ,संन्यासी ,महात्मा
91. पुत्र - सुत, बेटा ,तनय ,आत्मज ,तनुज ,नन्दन ,अपत्य
92. पुत्री - सुता ,बेटी ,तनया ,आत्मजा ,तनुजा ,नन्दिनी ,दुहिता
93. धन - श्री ,सम्पत्ति ,सम्पदा ,लक्ष्मी ,वित्त ,अर्थ
94. बादल - पयोद ,जलज ,अम्बुद ,मेघ ,वारिद ,जलधर ,नीरद ,पयोधर ,वारिधर
95. ब्राह्मण - द्विज ,भूसुर ,भूदेव ,विप्र ,पण्डित
96. विष्णु - हरि ,श्रीपति ,लक्ष्मीपति ,चतुर्भुज ,रमापति ,रमेश ,चक्रपाणि ,जनार्दन ,मुकुन्द, नारायण ,माधव ,केशव,अच्युत
97. अग्नि - आग ,अनल,पावक ,हुताशन,कृशानु ,दहन ,वह्नि ,ज्वाला ,कपिल,शिखि ,धुमध्व्ज
98. अतिथि - अभ्यागत ,पाहुन ,आगन्तुक ,मेहमान
99. अश्व - घोड़ा ,हय ,बाजि ,घोटक ,तुरंग ,सैन्धव
100. चरण - पैर ,पाद ,पाँव ,पग ,पद 



               

14.संधि

संधि :-
दो पदों में संयोजन होने पर जब दो वर्ण पास -पास आते हैं , तब उनमें जो विकार सहित मेल होता है , उसे संधि कहते हैं !
संधि तीन प्रकार की होती हैं :-
1. स्वर संधि - दो स्वरों के पास -पास आने पर उनमें जो रूपान्तरण होता है , उसे स्वर कहते है ! स्वर संधि के पांच भेद हैं :-
A. दीर्घ स्वर संधि
B. गुण स्वर संधि
C. यण स्वर संधि
D. वृद्धि स्वर संधि
E. अयादि स्वर संधि

A- दीर्घ स्वर संधि-
जब दो सवर्णी स्वर पास -पास आते हैं , तो मिलकर दीर्घ हो जाते हैं !
जैसे -
1. अ+अ = आ भाव +अर्थ = भावार्थ
2. इ +ई = ई गिरि +ईश = गिरीश
3. उ +उ = ऊ अनु +उदित = अनूदित
4. ऊ +उ =ऊ वधू +उत्सव =वधूत्सव
5. आ +आ =आ विद्या +आलय = विधालय

B- गुण संधि :-
अ तथा आ के बाद इ , ई , उ , ऊ तथा ऋ आने पर क्रमश: ए , ओ तथा अनतस्थ र होता है इस विकार को गुण संधि कहते है !
जैसे :-
1. अ +इ =ए देव +इन्द्र = देवेन्द्र
2. अ +ऊ =ओ जल +ऊर्मि = जलोर्मि
3. अ +ई =ए नर +ईश = नरेश
4. आ +इ =ए महा +इन्द्र = महेन्द्र
5. आ +उ =ओ नयन +उत्सव = नयनोत्सव

C- यण स्वर संधि :-
यदि इ , ई , उ , ऊ ,और ऋ के बाद कोई भिन्न स्वर आए तो इनका परिवर्तन क्रमश: य , व् और र में हो जाता है !
जैसे -
1. इ का य = इति +आदि = इत्यादि
2. ई का य = देवी +आवाहन = देव्यावाहन
3. उ का व = सु +आगत = स्वागत
4. ऊ का व = वधू +आगमन = वध्वागमन
5. ऋ का र = पितृ +आदेश = पित्रादेश

D- वृद्धि स्वर संधि : -
यदि अ अथवा आ के बाद ए अथवा ऐ हो तो दोनों को मिलाकर ऐ और यदि ओ अथवा औ हो तो दोनों को मिलाकर औ हो जाता है !
जैसे -
1. अ +ए =ऐ एक +एक = एकैक
2. अ +ऐ =ऐ मत +ऐक्य = मतैक्य
3. अ +औ=औ परम +औषध = परमौषध
4. आ +औ =औ महा +औषध = महौषध
5. आ +ओ =औ महा +ओघ = महौघ

E- अयादि स्वर संधि :-
यदि ए , ऐ और ओ , औ के पशचात इन्हें छोड़कर कोई अन्य स्वर हो तो इनका परिवर्तन क्रमश: अय , आय , अव , आव में हो जाता है
जैसे -
1. ए का अय ने +अन = नयन
2. ऐ का आय नै +अक = नायक
3. ओ का अव पो +अन = पवन
4. औ का आव पौ +अन = पावन
5. न का परिवर्तन ण में = श्रो +अन = श्रवण

2- व्यंजन संधि :-
व्यंजन के साथ स्वर अथवा व्यंजन के मेल से उस व्यंजन में जो रुपान्तरण होता है , उसे व्यंजन संधि कहते हैं
जैसे :-
1. प्रति +छवि = प्रतिच्छवि
2. दिक् +अन्त = दिगन्त
3. दिक् +गज = दिग्गज
4. अनु +छेद =अनुच्छेद
5. अच +अन्त = अजन्त

3- विसर्ग संधि : -
विसर्ग के साथ स्वर या व्यंजन का मेल होने पर जो विकार होता है , उसे विसर्ग संधि कहते हैं !
जैसे -
1. मन: +रथ = मनोरथ
2. यश: +अभिलाषा = यशोभिलाषा
3. अध: +गति = अधोगति
4. नि: +छल = निश्छल
5. दु: +गम = दुर्गम

दो वर्णों के मेल से होने वाले विकार को संधि कहते हैं। इस मिलावट को समझकर वर्णों को अलग करते हुए पदों को अलग-अलग कर देना संधि-विच्छेद है। हिंदी भाषा में संधि द्वारा संयुक्त शब्द लिखने का सामान्य चलन नहीं है। पर संस्कृत में इसके बिना काम नहीं चलता है। संस्कृत के तत्सम शब्द ग्रहण कर लेने के कारण संस्कृत व्याकरण के संधि के नियमों को हिंदी व्याकरण में भी ग्रहण कर लिया गया है। शब्द रचना में संधियाँ उसी प्रकार सहायक है जैसे उपसर्ग, प्रत्यय, समास आदि।

यहाँ वर्णक्रम से संधि तथा उसके विच्छेद संग्रहित किए गए हैं। साथ ही संधि का प्रकार भी निर्देशित है।

अ, आ
अंतःकरण = अंतः + करण (विसर्ग-संधि)
अजंत = अच् + अंत (व्यंजन संधि)
अञ्नाश = अच् + नाश (व्यंजन संधि)
अधोगति = अधः + गति (विसर्ग-संधि)
अनुच्छेद = अनु + छेद (व्यंजन संधि)
अन्वय = अनु + अय (यण स्वर संधि)
अन्वेषण = अनु + एषण (यण स्वर संधि)
अब्ज = अप् + ज (व्यंजन संधि)
अभिषेक = अभि + सेक (व्यंजन संधि)
अम्मय = अप् + मय (व्यंजन संधि)
आच्छादन = आ + छादन (व्यंजन संधि)
अत्रैव = अत्र + एव (वृद्दि संधि)

इत्यादि = इति + आदि (यण स्वर संधि)
अहीर = अहि + ईर (दीर्घ सन्धि)

उ, ऊ
उच्चारण = उत् + चारण (व्यंजन संधि)
उच्छिष्ट = उत् + शिष्ट (व्यंजन संधि)
उज्झटिका = उत् + झटिका (व्यंजन संधि)
उड्डयन = उत् + डयन (व्यंजन संधि)
उद्धरण = उत् + हरण (व्यंजन संधि)
उद्धार = उत् + हार (व्यंजन संधि)
उन्नयन = उत् + नयन (व्यंजन संधि)
उल्लास = उत् + लास (व्यंजन संधि
उल्लेख = उत् + लेख (व्यंजन संधि)

ए, ऐ
एकैक = एक + एक (वृद्धि स्वर संधि)

ओ, औ, अं, अः
क, ख
किंकर = किम् + कर (व्यंजन संधि)
किंचित = किम् + चित (व्यंजन संधि)

ग, घ, ङ
गायक = गै + अक (अयादि स्वर संधि)
गिरीश = गिरि + ईश (दीर्घ स्वर सन्धि)

च, छ
चतुष्पाद = चतुः + पाद (विसर्ग-संधि)

ज, झ, ञ
जगदीश = जगत् + ईश (व्यंजन संधि)
जलोर्मि = जल + ऊर्मि (गुण स्वर सन्धि)

ट, ठ
ड, ढ, ण
त, थ
तट्टीका = तत् + टीका (व्यंजन संधि)
तद्धित = तत् + हित (व्यंजन संधि)
तद्रूप = तत् + रूप (व्यंजन संधि)

द, ध, न
तेनादिष्ट= तेन+अदिष्ट (दीर्घ संधि)
दिग्गज = दिक् + गज (व्यंजन संधि)
दुश्शासन = दुः + शासन (विसर्ग-संधि)
दुस्साहस = दुः + साहस (विसर्ग-संधि)
देवर्षि = देव + ऋषि (गुण स्वर सन्धि)
देव्यागमन = देवी + आगमन (यण स्वर संधि)
धर्मार्थ = धर्म + अर्थ (दीर्घ स्वर सन्धि)
नदीश = नदी + ईश (दीर्घ स्वर सन्धि)
नद्यर्पण = नदी + अर्पण (यण स्वर संधि)
नमस्ते = नमः + ते (विसर्ग-संधि)
नयन = ने + अन (अयादि स्वर संधि)
नरेंद्र = नर + इंद्र (गुण स्वर सन्धि)
नरेश = नर + ईश (गुण स्वर सन्धि)
नारींदु = नारी + इंदु (दीर्घ स्वर सन्धि)
नाविक = नौ + इक (अयादि स्वर संधि)
निराशा = निः + आशा (विसर्ग-संधि)
निराहार = निः + आहार (विसर्ग-संधि)
निरोग = निः + रोग (विसर्ग-संधि)
निर्धन = निः + धन (विसर्ग-संधि)
निश्चल = निः + चल (विसर्ग-संधि)
निश्छल = निः + छल (विसर्ग-संधि)
निषिद्ध = नि + सिद्ध (व्यंजन संधि)
निष्कलंक = निः + कलंक (विसर्ग-संधि)
निष्फल = निः + फल (विसर्ग-संधि)
निस्संतान = निः + संतान (विसर्ग-संधि)
नीरस = निः + रस (विसर्ग-संधि)

प, फ
परमौषध = परम + औषध (वृद्धि स्वर संधि)
परिणाम = परि + नाम (व्यंजन संधि)
पवन = पो + अन (अयादि स्वर संधि)
पावक = पौ + अक (अयादि स्वर संधि)
पित्राज्ञा = पितृ + आज्ञा (यण स्वर संधि)
प्रमाण = प्र + मान (व्यंजन संधि)

ब, भ, म
भगवद्भक्ति = भगवत् + भक्ति (व्यंजन संधि)
भानूदय = भानु + उदय (दीर्घ स्वर सन्धि)
भूर्ध्व = भू + ऊर्ध्व (दीर्घ स्वर सन्धि)
मतैक्य = मत + ऐक्य (वृद्धि स्वर संधि)
मनोनुकूल = मनः + अनुकूल (विसर्ग-संधि)
मनोबल = मनः + बल (विसर्ग-संधि)
महर्षि = महा + ऋषि (गुण स्वर सन्धि)
महींद्र = मही + इंद्र (दीर्घ स्वर सन्धि)
महीश = मही + ईश (दीर्घ स्वर सन्धि)
महेंद्र = महा + इंद्र (गुण स्वर सन्धि)
महेश = महा + ईश (गुण स्वर सन्धि)
महैश्वर्य = महा + ऐश्वर्य (वृद्धि स्वर संधि)
महोत्सव = महा + उत्सव (गुण स्वर सन्धि)
महोर्मि = महा + ऊर्मि (गुण स्वर सन्धि)
महौषध = महा + औषध (वृद्धि स्वर संधि)
महौषधि = महा + औषध (वृद्धि स्वर संधि)
मुनींद्र = मुनि + इंद्र (दीर्घ स्वर सन्धि)
मुनीश = मुनि + ईश (दीर्घ स्वर सन्धि)

य, र, ल, व
यद्यपि = यदि + अपि (यण स्वर संधि)
रवींद्र = रवि + इंद्र (दीर्घ स्वर सन्धि)
लघूर्मि = लघु + ऊर्मि (दीर्घ स्वर सन्धि)
वधूत्सव = वधू + उत्सव (दीर्घ स्वर सन्धि)
वधूर्जा = वधू + ऊर्जा (दीर्घ स्वर सन्धि)
वधूल्लेख = वधू + उल्लेख (दीर्घ स्वर सन्धि)
वनौषधि = वन + ओषधि (वृद्धि स्वर संधि)
वागीश = वाक + ईश (व्यंजन संधि)
वाड़्मय = वाक + मय (व्यंजन संधि)
विद्यार्थी = विद्या + अर्थी (दीर्घ स्वर सन्धि)
विद्यालय = विद्या + आलय (दीर्घ स्वर सन्धि)
विधूदय = विधु + उदय (दीर्घ स्वर सन्धि)
विषम = वि + सम (व्यंजन संधि)

श, ष, स, ह
षडानन = षट् + आनन (व्यंजन संधि)
षण्मास = षट् + मास (व्यंजन संधि)
संकल्प = सम् + कल्प (व्यंजन संधि)
संचय = सम् + चय (व्यंजन संधि)
संतोष = सम् + तोष (व्यंजन संधि)
संधिच्छेद = संधि + छेद (व्यंजन संधि)
संपूर्ण = सम् + पूर्ण (व्यंजन संधि)
संबंध = सम् + बंध (व्यंजन संधि)
संयोग = सम् + योग (व्यंजन संधि)
संरक्षण = सम् + रक्षण (व्यंजन संधि)
संलग्न = सम् + लग्न (व्यंजन संधि)
संवाद = सम् + वाद (व्यंजन संधि)
संविधान = सम् + विधान (व्यंजन संधि)
संशय = सम् + शय (व्यंजन संधि)
संसार = सम् + सार (व्यंजन संधि)
सच्छास्त्र = सत् + शास्त्र (व्यंजन संधि)
सज्जन = सत् + जन (व्यंजन संधि)
सदैव = सदा + एव (वृद्धि स्वर संधि)
सद्धर्म = सत् + धर्म (व्यंजन संधि)
सद्भावना = सत् + भावना (व्यंजन संधि)
सम्मति = सम् + मति (व्यंजन संधि)
सम्मान = सम् + मान (व्यंजन संधि)
सिंधूर्मि = सिधु + ऊर्मि (दीर्घ स्वर सन्धि)
स्वच्छंद = स्व + छंद (व्यंजन संधि)
स्वागत = सु + आगत (यण स्वर संधि)
हिमालय = हिम + आलय (दीर्घ स्वर सन्धि)

क्ष, त्र, ज्ञ
ज्ञानोपदेश = ज्ञान + उपदेश (गुण स्वर सन्धि) 






                 

15. उपसर्ग

उपसर्ग और उनके अर्थबोध
संस्कृत में बाइस (22) उपसर्ग हैं। प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस्, निर्, दुस्, दुर्, वि, आ (आङ्), नि, अधि, अपि, अति, सु, उत् /उद्, अभि, प्रति, परि तथा उप। इनका अर्थ इस प्रकार है:

अति - excessive, surpassing, over, beyond

अधि - above, additional, upon

अनु - after, behind, along, near, with, orderly

अप - away, off, back, down, negation, bad, wrong

अपि - placing over, uniting, proximity, in addition to

अभि - intensive, over, towards, on, upon

अव - down, off, away

आ - towards, near, opposite, limit, diminutive

उत्, उद् - up, upwards, off, away, out, out of, over

उप - near, inferior, subordinate, towards, under, on

दुस्, दुर्, दुः - bad, hard, difficult, inferior

नि - negation, in, into, down, back

निस्, निर्, निः - negative, out, away, forth, intensive

परा - away, off, aside

परि - round, about, fully

प्र - forth, on, onwards, away, forward, very, excessive, great

प्रति - towards, in opposition to, against, upon, in return,back, likeness, every

वि - without, apart, away, opposite, intensive, different

सम् - with, together, completely

सु - good, well, easy

उदाहरण
अति - (आधिक्य) अतिशय, अतिरेक;
अधि - (मुख्य) अधिपति, अध्यक्ष
अधि - (वर) अध्ययन, अध्यापन
अनु - (मागुन) अनुक्रम, अनुताप, अनुज;
अनु - (प्रमाणें) अनुकरण, अनुमोदन.
अप - (खालीं येणें) अपकर्ष, अपमान;
अप - (विरुद्ध होणें) अपकार, अपजय.
अपि - (आवरण) अपिधान = अच्छादन
अभि - (अधिक) अभिनंदन, अभिलाप
अभि - (जवळ) अभिमुख, अभिनय
अभि - (पुढें) अभ्युत्थान, अभ्युदय.
अव - (खालीं) अवगणना, अवतरण;
अव - (अभाव, विरूद्धता) अवकृपा, अवगुण.
आ - (पासून, पर्यंत) आकंठ, आजन्म;
आ - (किंचीत) आरक्त;
आ - (उलट) आगमन, आदान;
आ - (पलीकडे) आक्रमण, आकलन.
उत् - (वर) उत्कर्ष, उत्तीर्ण, उद्भिज्ज
उप - (जवळ) उपाध्यक्ष, उपदिशा;
उप - (गौण) उपग्रह, उपवेद, उपनेत्र
दुर्, दुस् - (वाईट) दुराशा, दुरुक्ति, दुश्चिन्ह, दुष्कृत्य.
नि - (अत्यंत) निमग्न, निबंध
नि - (नकार) निकामी, निजोर.
निर् - (अभाव) निरंजन, निराषा
निस् (अभाव) निष्फळ, निश्चल, नि:शेष.
परा - (उलट) पराजय, पराभव
परि - (पूर्ण) परिपाक, परिपूर्ण (व्याप्त), परिमित, परिश्रम, परिवार
प्र - (आधिक्य) प्रकोप, प्रबल, प्रपिता
प्रति - (उलट) प्रतिकूल, प्रतिच्छाया,
प्रति - (एकेक) प्रतिदिन, प्रतिवर्ष, प्रत्येक
वि - (विशेष) विख्यात, विनंती, विवाद
वि - (अभाव) विफल, विधवा, विसंगति
सम् - (चांगले) संस्कृत, संस्कार, संगीत,
सम् - (बरोबर) संयम, संयोग, संकीर्ण.
सु - (चांगले) सुभाषित, सुकृत, सुग्रास;
सु - (सोपें) सुगम, सुकर, स्वल्प;
सु - (अधिक) सुबोधित, सुशिक्षित.
कुछ शब्दों के पूर्व एक से अधिक उपसर्ग भी लग सकते हैं।

उदाहरण

प्रति + अप + वाद = प्रत्यपवाद
सम् + आ + लोचन = समालोचन
वि + आ + करण = व्याकरण
अत्युत्कृष्ट, निर्विकार, सुसंगति इत्यादि

उर्दू उपसर्ग
उपसर्ग - अर्थ - शब्दरूप

अल - निश्र्चित, अन्तिम - अलविदा, अलबत्ता

कम - हीन, थोड़ा, अल्प - कमसिन, कमअक्ल, कमज़ोर

खुश - श्रेष्ठता के अर्थ में - खुशबू, खुशनसीब, खुशकिस्मत, खुशदिल, खुशहाल, खुशमिजाज

ग़ैर - निषेध - ग़ैरहाज़िर ग़ैरकानूनी ग़ैरवाजिब ग़ैरमुमकिन ग़ैरसरकारी ग़ैरमुनासिब

दर - मध्य में - दरम्यान दरअसल दरहकीकत

ना - अभाव - नामुमकिन नामुराद नाकामयाब नापसन्द नासमझ नालायक नाचीज़ नापाक नाकाम

फ़ी - प्रति - फ़ीसदी फ़ीआदमी

ब - से, के, में, अनुसार - बनाम बदस्तूर बमुश्किल बतकल्लुफ़

बद - बुरा - बदनाम बदमाश बदकिस्मत बदबू बदहज़मी बददिमाग बदमज़ा बदहवास बददुआ बदनीयत बदकार

बर - पर, ऊपर, बाहर - बरकरार बरवक्त बरअक्स बरजमां कंठस्थ

बा - सहित - बाकायदा बाकलम बाइज्जत बाइन्साफ बामुलाहिज़ा

बिला - बिना - बिलावज़ह बिलालिहाज़ बिलाशक बिलानागा

बे - बिना - बेबुनियाद बेईमान बेवक्त बेरहम बेतरह बेइज्जत बेअक्ल बेकसूर बेमानी बेशक

ला - बिना, नहीं - लापता लाजबाब लावारिस लापरवाह लाइलाज लामानी लाइल्म लाज़वाल

सर - मुख्य - सरहद सरताज सरकार सरगना

उपसर्ग के अन्य अर्थ
बुरा लक्षण या अपशगुन
वह पदार्थ जो कोई पदार्थ बनाते समय बीच में संयोगवश बन जाता या निकल आता है (बाई प्राडक्ट)। जैसे-गुड़ बनाते समय जो शीरा निकलता है, वह गुड़ का उपसर्ग है।
किसी प्रकार का उत्पात, उपद्रव या विघ्न
योगियों की योगसाधना के बीच होनेवाले विघ्न को उपसर्ग कहते हैं। ये पाँच प्रकार के बताए गए हैं : (1) प्रतिभ, (2) श्रावण, (3) दैव, (4)। मुनियों पर होनेवाले उक्त उपसर्गों के विस्तृत विवरण मिलते हैं। जैन साहित्य में विशेष रूप से इनका उल्लेख रहता है क्योंकि जैन धर्म के अनुसार साधना करते समय उपसर्गो का होना अनिवार्य है और केवल वे ही व्यक्ति अपनी साधना में सफल हो सकते हैं जो उक्त सभी उपसर्गों को अविचलित रहकर झेल लें। हिंदू धर्मकथाओं में भी साधना करनेवाले व्यक्तियों को अनेक विघ्नबाधाओं का सामना करना पड़ता है किंतु वहाँ उन्हें उपसर्ग की संज्ञा यदाकदा ही गई है।







                    

16. प्रत्यय

प्रत्यय

प्रत्यय (suffix) उन शब्दांश को कहते हैं जो किसी अन्य शब्द के अन्त में लगाये जाते हैं। इनके लगाने से शब्द के अर्थ में भिन्नता या वैशिष्ट्य आ जाता है।

उदाहरण
वान
यह किसी व्यक्ति की विशेषता दर्शाते समय उपयोग होता है। जैसे यह पहलवान बहुत बलवान है।

धन + वान = धनवान
विद्या + वान = विद्वान
बल + वान = बलवान
ता
उदार + ता = उदारता
सफल + ता = सफलता

पण्डित + ई = पण्डिताई
चालाक + ई = चालाकी
ज्ञान + ई - ज्ञानी
ओं
इसका उपयोग एक वचन शब्दों को बहुवचन शब्द बनाने के लिए किया जाता है।

भाषा + ओं = भाषाओं
शब्द + ओं = शब्दों
वाक्य + ओं = वाक्यों
कार्य + ओं = कार्यों
याँ
नदी + याँ = नदियाँ
प्रति + याँ = प्रतियाँ




                  

17. समास

समास

समास का तात्पर्य है ‘संक्षिप्तीकरण’। दो या दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने हुए एक नवीन एवं सार्थक शब्द को समास कहते हैं। जैसे - ‘रसोई के लिए घर’ इसे हम ‘रसोईघर’ भी कह सकते हैं। संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं में समास का बहुतायत में प्रयोग होता है। जर्मन आदि भाषाओं में भी समास का बहुत अधिक प्रयोग होता है।

परिभाषाएँ

सामासिक शब्द
समास के नियमों से निर्मित शब्द सामासिक शब्द कहलाता है। इसे समस्तपद भी कहते हैं। समास होने के बाद विभक्तियों के चिह्न (परसर्ग) लुप्त हो जाते हैं। जैसे-राजपुत्र।

समास-विग्रह
सामासिक शब्दों के बीच के संबंध को स्पष्ट करना समास-विग्रह कहलाता है। जैसे-राजपुत्र-राजा का पुत्र।

पूर्वपद और उत्तरपद
समास में दो पद (शब्द) होते हैं। पहले पद को पूर्वपद और दूसरे पद को उत्तरपद कहते हैं। जैसे-गंगाजल। इसमें गंगा पूर्वपद और जल उत्तरपद है।

संस्कृत में समासों का बहुत प्रयोग होता है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी समास उपयोग होता है। समास के बारे में संस्कृत में एक सूक्ति प्रसिद्ध है:

वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः।
तत् पुरुष कर्म धारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः॥
समास के भेद
समास के छः भेद होते हैं:

अव्ययीभाव
तत्पुरुष
द्विगु
द्वन्द्व
बहुव्रीहि
कर्मधारय
अव्ययीभाव समास
जिस समास का पहला पद(पूर्व पद) प्रधान हो और वह अव्यय हो उसे अव्ययीभाव समास कहते हैं। जैसे - यथामति (मति के अनुसार), आमरण (मृत्यु कर) न् इनमें यथा और आ अव्यय हैं।

कुछ अन्य उदाहरण -

आजीवन - जीवन-भर
यथासामर्थ्य - सामर्थ्य के अनुसार
यथाशक्ति - शक्ति के अनुसार
यथाविधि- विधि के अनुसार
यथाक्रम - क्रम के अनुसार
भरपेट- पेट भरकर
हररोज़ - रोज़-रोज़
हाथोंहाथ - हाथ ही हाथ में
रातोंरात - रात ही रात में
प्रतिदिन - प्रत्येक दिन
बेशक - शक के बिना
निडर - डर के बिना
निस्संदेह - संदेह के बिना
प्रतिवर्ष - हर वर्ष
अव्ययीभाव समास की पहचान - इसमें समस्त पद अव्यय बन जाता है अर्थात समास लगाने के बाद उसका रूप कभी नहीं बदलता है। इसके साथ विभक्ति चिह्न भी नहीं लगता। जैसे - ऊपर के समस्त शब्द है।

तत्पुरुष समास
तत्पुरुष समास - जिस समास का उत्तरपद प्रधान हो और पूर्वपद गौण हो उसे तत्पुरुष समास कहते हैं। जैसे - तुलसीदासकृत = तुलसी द्वारा कृत (रचित)

ज्ञातव्य- विग्रह में जो कारक प्रकट हो उसी कारक वाला वह समास होता है।

विभक्तियों के नाम के अनुसार तत्पुरुष समास के छह भेद हैं-

कर्म तत्पुरुष (गिरहकट - गिरह को काटने वाला)
करण तत्पुरुष (मनचाहा - मन से चाहा)
संप्रदान तत्पुरुष (रसोईघर - रसोई के लिए घर)
अपादान तत्पुरुष (देशनिकाला - देश से निकाला)
संबंध तत्पुरुष (गंगाजल - गंगा का जल)
अधिकरण तत्पुरुष (नगरवास - नगर में वास)
तत्पुरुष समास के प्रकार
नञ तत्पुरुष समास
जिस समास में पहला पद निषेधात्मक हो उसे नञ तत्पुरुष समास कहते हैं। जैसे -
समस्त पद समास-विग्रह समस्त पद समास-विग्रह
असभ्य न सभ्य अनंत न अंत
अनादि न आदि असंभव न संभव

कर्मधारय समास
जिस समास का उत्तरपद प्रधान हो और पूर्वपद व उत्तरपद में विशेषण-विशेष्य अथवा उपमान-उपमेय का संबंध हो वह कर्मधारय समास कहलाता है। जैसे -

समस्त पद समास-विग्रह समस्त पद समास-विग्रह
चंद्रमुख चंद्र जैसा मुख कमलनयन कमल के समान नयन
देहलता देह रूपी लता दहीबड़ा दही में डूबा बड़ा
नीलकमल नीला कमल पीतांबर पीला अंबर (वस्त्र)
सज्जन सत् (अच्छा) जन नरसिंह नरों में सिंह के समान
द्विगु समास
जिस समास का पूर्वपद संख्यावाचक विशेषण हो उसे द्विगु समास कहते हैं। इससे समूह अथवा समाहार का बोध होता है। जैसे -

समस्त पद समास-विग्रह समस्त पद समास-विग्रह
नवग्रह नौ ग्रहों का समूह दोपहर दो पहरों का समाहार
त्रिलोक तीन लोकों का समाहार चौमासा चार मासों का समूह
नवरात्र नौ रात्रियों का समूह शताब्दी सौ अब्दो (वर्षों) का समूह
अठन्नी आठ आनों का समूह त्रयम्बकेश्वर तीन लोकों का ईश्वर

द्वन्द्व समास
जिस समास के दोनों पद प्रधान होते हैं तथा विग्रह करने पर ‘और’, अथवा, ‘या’, एवं लगता है, वह द्वंद्व समास कहलाता है। जैसे-
समस्त पद समास-विग्रह समस्त पद समास-विग्रह
पाप-पुण्य पाप और पुण्य अन्न-जल अन्न और जल
सीता-राम सीता और राम खरा-खोटा खरा और खोटा
ऊँच-नीच ऊँच और नीच राधा-कृष्ण राधा और कृष्ण

बहुव्रीहि समास
जिस समास के दोनों पद अप्रधान हों और समस्तपद के अर्थ के अतिरिक्त कोई सांकेतिक अर्थ प्रधान हो उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं। जैसे -

समस्त पद समास-विग्रह
दशानन दश है आनन (मुख) जिसके अर्थात् रावण
नीलकंठ नीला है कंठ जिसका अर्थात् शिव
सुलोचना सुंदर है लोचन जिसके अर्थात् मेघनाद की पत्नी
पीतांबर पीला है अम्बर (वस्त्र) जिसका अर्थात् श्रीकृष्ण
लंबोदर लंबा है उदर (पेट) जिसका अर्थात् गणेशजी
दुरात्मा बुरी आत्मा वाला ( दुष्ट)
श्वेतांबर श्वेत है जिसके अंबर (वस्त्र) अर्थात् सरस्वती जी

कर्मधारय और बहुव्रीहि समास में अंतर
कर्मधारय में समस्त-पद का एक पद दूसरे का विशेषण होता है। इसमें शब्दार्थ प्रधान होता है। जैसे - नीलकंठ = नीला कंठ। बहुव्रीहि में समस्त पद के दोनों पदों में विशेषण-विशेष्य का संबंध नहीं होता अपितु वह समस्त पद ही किसी अन्य संज्ञादि का विशेषण होता है। इसके साथ ही शब्दार्थ गौण होता है और कोई भिन्नार्थ ही प्रधान हो जाता है। जैसे - नील+कंठ = नीला है कंठ जिसका अर्थात शिव।.

संधि और समास में अंतर
संधि वर्णों में होती है। इसमें विभक्ति या शब्द का लोप नहीं होता है।
जैसे - देव + आलय = देवालय।

समास दो पदों में होता है। समास होने पर विभक्ति या शब्दों का लोप भी हो जाता है।
जैसे - माता और पिता = माता-पिता। 




                  

18. काल

समास

समास का तात्पर्य है ‘संक्षिप्तीकरण’। दो या दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने हुए एक नवीन एवं सार्थक शब्द को समास कहते हैं। जैसे - ‘रसोई के लिए घर’ इसे हम ‘रसोईघर’ भी कह सकते हैं। संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं में समास का बहुतायत में प्रयोग होता है। जर्मन आदि भाषाओं में भी समास का बहुत अधिक प्रयोग होता है।

परिभाषाएँ

सामासिक शब्द
समास के नियमों से निर्मित शब्द सामासिक शब्द कहलाता है। इसे समस्तपद भी कहते हैं। समास होने के बाद विभक्तियों के चिह्न (परसर्ग) लुप्त हो जाते हैं। जैसे-राजपुत्र।

समास-विग्रह
सामासिक शब्दों के बीच के संबंध को स्पष्ट करना समास-विग्रह कहलाता है। जैसे-राजपुत्र-राजा का पुत्र।

पूर्वपद और उत्तरपद
समास में दो पद (शब्द) होते हैं। पहले पद को पूर्वपद और दूसरे पद को उत्तरपद कहते हैं। जैसे-गंगाजल। इसमें गंगा पूर्वपद और जल उत्तरपद है।

संस्कृत में समासों का बहुत प्रयोग होता है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी समास उपयोग होता है। समास के बारे में संस्कृत में एक सूक्ति प्रसिद्ध है:

वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः।
तत् पुरुष कर्म धारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः॥
समास के भेद
समास के छः भेद होते हैं:

अव्ययीभाव
तत्पुरुष
द्विगु
द्वन्द्व
बहुव्रीहि
कर्मधारय
अव्ययीभाव समास
जिस समास का पहला पद(पूर्व पद) प्रधान हो और वह अव्यय हो उसे अव्ययीभाव समास कहते हैं। जैसे - यथामति (मति के अनुसार), आमरण (मृत्यु कर) न् इनमें यथा और आ अव्यय हैं।

कुछ अन्य उदाहरण -

आजीवन - जीवन-भर
यथासामर्थ्य - सामर्थ्य के अनुसार
यथाशक्ति - शक्ति के अनुसार
यथाविधि- विधि के अनुसार
यथाक्रम - क्रम के अनुसार
भरपेट- पेट भरकर
हररोज़ - रोज़-रोज़
हाथोंहाथ - हाथ ही हाथ में
रातोंरात - रात ही रात में
प्रतिदिन - प्रत्येक दिन
बेशक - शक के बिना
निडर - डर के बिना
निस्संदेह - संदेह के बिना
प्रतिवर्ष - हर वर्ष
अव्ययीभाव समास की पहचान - इसमें समस्त पद अव्यय बन जाता है अर्थात समास लगाने के बाद उसका रूप कभी नहीं बदलता है। इसके साथ विभक्ति चिह्न भी नहीं लगता। जैसे - ऊपर के समस्त शब्द है।

तत्पुरुष समास
तत्पुरुष समास - जिस समास का उत्तरपद प्रधान हो और पूर्वपद गौण हो उसे तत्पुरुष समास कहते हैं। जैसे - तुलसीदासकृत = तुलसी द्वारा कृत (रचित)

ज्ञातव्य- विग्रह में जो कारक प्रकट हो उसी कारक वाला वह समास होता है।

विभक्तियों के नाम के अनुसार तत्पुरुष समास के छह भेद हैं-

कर्म तत्पुरुष (गिरहकट - गिरह को काटने वाला)
करण तत्पुरुष (मनचाहा - मन से चाहा)
संप्रदान तत्पुरुष (रसोईघर - रसोई के लिए घर)
अपादान तत्पुरुष (देशनिकाला - देश से निकाला)
संबंध तत्पुरुष (गंगाजल - गंगा का जल)
अधिकरण तत्पुरुष (नगरवास - नगर में वास)
तत्पुरुष समास के प्रकार
नञ तत्पुरुष समास
जिस समास में पहला पद निषेधात्मक हो उसे नञ तत्पुरुष समास कहते हैं। जैसे -
समस्त पद समास-विग्रह समस्त पद समास-विग्रह
असभ्य न सभ्य अनंत न अंत
अनादि न आदि असंभव न संभव

कर्मधारय समास
जिस समास का उत्तरपद प्रधान हो और पूर्वपद व उत्तरपद में विशेषण-विशेष्य अथवा उपमान-उपमेय का संबंध हो वह कर्मधारय समास कहलाता है। जैसे -

समस्त पद समास-विग्रह समस्त पद समास-विग्रह
चंद्रमुख चंद्र जैसा मुख कमलनयन कमल के समान नयन
देहलता देह रूपी लता दहीबड़ा दही में डूबा बड़ा
नीलकमल नीला कमल पीतांबर पीला अंबर (वस्त्र)
सज्जन सत् (अच्छा) जन नरसिंह नरों में सिंह के समान
द्विगु समास
जिस समास का पूर्वपद संख्यावाचक विशेषण हो उसे द्विगु समास कहते हैं। इससे समूह अथवा समाहार का बोध होता है। जैसे -

समस्त पद समास-विग्रह समस्त पद समास-विग्रह
नवग्रह नौ ग्रहों का समूह दोपहर दो पहरों का समाहार
त्रिलोक तीन लोकों का समाहार चौमासा चार मासों का समूह
नवरात्र नौ रात्रियों का समूह शताब्दी सौ अब्दो (वर्षों) का समूह
अठन्नी आठ आनों का समूह त्रयम्बकेश्वर तीन लोकों का ईश्वर

द्वन्द्व समास
जिस समास के दोनों पद प्रधान होते हैं तथा विग्रह करने पर ‘और’, अथवा, ‘या’, एवं लगता है, वह द्वंद्व समास कहलाता है। जैसे-
समस्त पद समास-विग्रह समस्त पद समास-विग्रह
पाप-पुण्य पाप और पुण्य अन्न-जल अन्न और जल
सीता-राम सीता और राम खरा-खोटा खरा और खोटा
ऊँच-नीच ऊँच और नीच राधा-कृष्ण राधा और कृष्ण

बहुव्रीहि समास
जिस समास के दोनों पद अप्रधान हों और समस्तपद के अर्थ के अतिरिक्त कोई सांकेतिक अर्थ प्रधान हो उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं। जैसे -

समस्त पद समास-विग्रह
दशानन दश है आनन (मुख) जिसके अर्थात् रावण
नीलकंठ नीला है कंठ जिसका अर्थात् शिव
सुलोचना सुंदर है लोचन जिसके अर्थात् मेघनाद की पत्नी
पीतांबर पीला है अम्बर (वस्त्र) जिसका अर्थात् श्रीकृष्ण
लंबोदर लंबा है उदर (पेट) जिसका अर्थात् गणेशजी
दुरात्मा बुरी आत्मा वाला ( दुष्ट)
श्वेतांबर श्वेत है जिसके अंबर (वस्त्र) अर्थात् सरस्वती जी

कर्मधारय और बहुव्रीहि समास में अंतर
कर्मधारय में समस्त-पद का एक पद दूसरे का विशेषण होता है। इसमें शब्दार्थ प्रधान होता है। जैसे - नीलकंठ = नीला कंठ। बहुव्रीहि में समस्त पद के दोनों पदों में विशेषण-विशेष्य का संबंध नहीं होता अपितु वह समस्त पद ही किसी अन्य संज्ञादि का विशेषण होता है। इसके साथ ही शब्दार्थ गौण होता है और कोई भिन्नार्थ ही प्रधान हो जाता है। जैसे - नील+कंठ = नीला है कंठ जिसका अर्थात शिव।.

संधि और समास में अंतर
संधि वर्णों में होती है। इसमें विभक्ति या शब्द का लोप नहीं होता है।
जैसे - देव + आलय = देवालय।

समास दो पदों में होता है। समास होने पर विभक्ति या शब्दों का लोप भी हो जाता है।
जैसे - माता और पिता = माता-पिता। 




                

19. अशुद्ध वाक्यों के शुद्ध वाक्य

अशुद्ध वाक्यों के शुद्ध वाक्य

(1) वचन-संबंधी अशुद्धियाँ

अशुद्ध
1. पाकिस्तान ने गोले और तोपों से आक्रमण किया।
2. उसने अनेकों ग्रंथ लिखे।
3. महाभारत अठारह दिनों तक चलता रहा।
4. तेरी बात सुनते-सुनते कान पक गए।
5. पेड़ों पर तोता बैठा है।

शुद्ध
1. पाकिस्तान ने गोलों और तोपों से आक्रमण किया।
2. उसने अनेक ग्रंथ लिखे।
3. महाभारत अठारह दिन तक चलता रहा।
4. तेरी बातें सुनते-सुनते कान पक गए।
5. पेड़ पर तोता बैठा है।

(2) लिंग संबंधी अशुद्धियाँ-
अशुद्ध - शुद्ध
1. उसने संतोष का साँस ली।||| उसने संतोष की साँस ली।
2. सविता ने जोर से हँस दिया।||| सविता जोर से हँस दी।
3. मुझे बहुत आनंद आती है।||| मुझे बहुत आनंद आता है।
4. वह धीमी स्वर में बोला।|||| वह धीमे स्वर में बोला।
5. राम और सीता वन को गई।|||| राम और सीता वन को गए।

(3) विभक्ति-संबंधी अशुद्धियाँ-
अशुद्ध शुद्ध
1. मैं यह काम नहीं किया हूँ। मैंने यह काम नहीं किया है।
2. मैं पुस्तक को पढ़ता हूँ। मैं पुस्तक पढ़ता हूँ।
3. हमने इस विषय को विचार किया। हमने इस विषय पर विचार किया
4. आठ बजने को दस मिनट है। आठ बजने में दस मिनट है।
5. वह देर में सोकर उठता है। वह देर से सोकर उठता है।

(4) संज्ञा संबंधी अशुद्धियाँ-
अशुद्ध शुद्ध
1. मैं रविवार के दिन तुम्हारे घर आऊँगा। मैं रविवार को तुम्हारे घर आऊँगा।
2. कुत्ता रेंकता है। कुत्ता भौंकता है।
3. मुझे सफल होने की निराशा है। मुझे सफल होने की आशा नहीं है।
4. गले में गुलामी की बेड़ियाँ पड़ गई। पैरों में गुलामी की बेड़ियाँ पड़ गई।

(5) सर्वनाम की अशुद्धियाँ-
अशुद्ध शुद्ध
1. गीता आई और कहा। गीता आई और उसने कहा।
2. मैंने तेरे को कितना समझाया। मैंने तुझे कितना समझाया।
3. वह क्या जाने कि मैं कैसे जीवित हूँ। वह क्या जाने कि मैं कैसे जी रहा हूँ।

(6) विशेषण-संबंधी अशुद्धियाँ-
अशुद्ध शुद्ध
1. किसी और लड़के को बुलाओ। किसी दूसरे लड़के को बुलाओ।
2. सिंह बड़ा बीभत्स होता है। सिंह बड़ा भयानक होता है।
3. उसे भारी दुख हुआ। उसे बहुत दुख हुआ।
4. सब लोग अपना काम करो। सब लोग अपना-अपना काम करो।

(7) क्रिया-संबंधी अशुद्धियाँ-
अशुद्ध शुद्ध
1. क्या यह संभव हो सकता है ? क्या यह संभव है ?
2. मैं दर्शन देने आया था। मैं दर्शन करने आया था।
3. वह पढ़ना माँगता है। वह पढ़ना चाहता है।
4. बस तुम इतने रूठ उठे बस, तुम इतने में रूठ गए।
5. तुम क्या काम करता है ? तुम क्या काम करते हो ?

(8) मुहावरे-संबंधी अशुद्धियाँ-
अशुद्ध शुद्ध
1. युग की माँग का यह बीड़ा कौन चबाता है युग की माँग का यह बीड़ा कौन उठाता है।
2. वह श्याम पर बरस गया। वह श्याम पर बरस पड़ा।
3. उसकी अक्ल चक्कर खा गई। उसकी अक्ल चकरा गई।
4. उस पर घड़ों पानी गिर गया। उस पर घड़ों पानी पड़ गया।

(9) क्रिया-विशेषण-संबंधी अशुद्धियाँ-
अशुद्ध शुद्ध
1. वह लगभग दौड़ रहा था। वह दौड़ रहा था।
2. सारी रात भर मैं जागता रहा। मैं सारी रात जागता रहा।
3. तुम बड़ा आगे बढ़ गया। तुम बहुत आगे बढ़ गए.
4. इस पर्वतीय क्षेत्र में सर्वस्व शांति है। इस पर्वतीय क्षेत्र में सर्वत्र शांति है।




                  

20. वाक्य

वाक्य

वाक्य- एक विचार को पूर्णता से प्रकट करने वाला शब्द-समूह वाक्य कहलाता है।
जैसे-
1. श्याम दूध पी रहा है।
2. मैं भागते-भागते थक गया।
3. यह कितना सुंदर उपवन है।
4. ओह ! आज तो गरमी के कारण प्राण निकले जा रहे हैं।
5. वह मेहनत करता तो पास हो जाता।

ये सभी मुख से निकलने वाली सार्थक ध्वनियों के समूह हैं। अतः ये वाक्य हैं। वाक्य भाषा का चरम अवयव है।
वाक्य-खंड

वाक्य के प्रमुख दो खंड हैं-
1. उद्देश्य।
2. विधेय।

1. उद्देश्य- जिसके विषय में कुछ कहा जाता है उसे सूचकि करने वाले शब्द को उद्देश्य कहते हैं।
जैसे-
1. अर्जुन ने जयद्रथ को मारा।
2. कुत्ता भौंक रहा है।
3. तोता डाल पर बैठा है।
इनमें अर्जुन ने, कुत्ता, तोता उद्देश्य हैं; इनके विषय में कुछ कहा गया है। अथवा यों कह सकते हैं कि वाक्य में जो कर्ता हो उसे उद्देश्य कह सकते हैं क्योंकि किसी क्रिया को करने के कारण वही मुख्य होता है।

2. विधेय- उद्देश्य के विषय में जो कुछ कहा जाता है, अथवा उद्देश्य (कर्ता) जो कुछ कार्य करता है वह सब विधेय कहलाता है।
जैसे-
1. अर्जुन ने जयद्रथ को मारा।
2. कुत्ता भौंक रहा है।
3. तोता डाल पर बैठा है।
इनमें ‘जयद्रथ को मारा’, ‘भौंक रहा है’, ‘डाल पर बैठा है’ विधेय हैं क्योंकि अर्जुन ने, कुत्ता, तोता,-इन उद्देश्यों (कर्ताओं) के कार्यों के विषय में क्रमशः मारा, भौंक रहा है, बैठा है, ये विधान किए गए हैं, अतः इन्हें विधेय कहते हैं।
उद्देश्य का विस्तार- कई बार वाक्य में उसका परिचय देने वाले अन्य शब्द भी साथ आए होते हैं। ये अन्य शब्द उद्देश्य का विस्तार कहलाते हैं।

जैसे-
1. सुंदर पक्षी डाल पर बैठा है।
2. काला साँप पेड़ के नीचे बैठा है।
इनमें सुंदर और काला शब्द उद्देश्य का विस्तार हैं।

उद्देश्य में निम्नलिखित शब्द-भेदों का प्रयोग होता है-
(1) संज्ञा- घोड़ा भागता है।
(2) सर्वनाम- वह जाता है।
(3) विशेषण- विद्वान की सर्वत्र पूजा होती है।
(4) क्रिया-विशेषण- (जिसका) भीतर-बाहर एक-सा हो।
(5) वाक्यांश- झूठ बोलना पाप है।

वाक्य के साधारण उद्देश्य में विशेषणादि जोड़कर उसका विस्तार करते हैं। उद्देश्य का विस्तार नीचे लिखे शब्दों के द्वारा प्रकट होता है-
(1) विशेषण से- अच्छा बालक आज्ञा का पालन करता है।
(2) संबंध कारक से- दर्शकों की भीड़ ने उसे घेर लिया।
(3) वाक्यांश से- काम सीखा हुआ कारीगर कठिनाई से मिलता है।
विधेय का विस्तार- मूल विधेय को पूर्ण करने के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है वे विधेय का विस्तार कहलाते हैं। जैसे-वह अपने पैन से लिखता है। इसमें अपने विधेय का विस्तार है।
कर्म का विस्तार- इसी तरह कर्म का विस्तार हो सकता है। जैसे-मित्र, अच्छी पुस्तकें पढ़ो। इसमें अच्छी कर्म का विस्तार है।
क्रिया का विस्तार- इसी तरह क्रिया का भी विस्तार हो सकता है। जैसे-श्रेय मन लगाकर पढ़ता है। मन लगाकर क्रिया का विस्तार है।
वाक्य-भेद

रचना के अनुसार वाक्य के निम्नलिखित भेद हैं-
1. साधारण वाक्य।
2. संयुक्त वाक्य।
3. मिश्रित वाक्य।

1. साधारण वाक्य
जिस वाक्य में केवल एक ही उद्देश्य (कर्ता) और एक ही समापिका क्रिया हो, वह साधारण वाक्य कहलाता है।
जैसे-
1. बच्चा दूध पीता है।
2. कमल गेंद से खेलता है।
3. मृदुला पुस्तक पढ़ रही हैं।

विशेष-इसमें कर्ता के साथ उसके विस्तारक विशेषण और क्रिया के साथ विस्तारक सहित कर्म एवं क्रिया-विशेषण आ सकते हैं। जैसे-अच्छा बच्चा मीठा दूध अच्छी तरह पीता है। यह भी साधारण वाक्य है।

2. संयुक्त वाक्य
दो अथवा दो से अधिक साधारण वाक्य जब सामानाधिकरण समुच्चयबोधकों जैसे- (पर, किन्तु, और, या आदि) से जुड़े होते हैं, तो वे संयुक्त वाक्य कहलाते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं।
(1) संयोजक- जब एक साधारण वाक्य दूसरे साधारण या मिश्रित वाक्य से संयोजक अव्यय द्वारा जुड़ा होता है। जैसे-गीता गई और सीता आई।
(2) विभाजक- जब साधारण अथवा मिश्र वाक्यों का परस्पर भेद या विरोध का संबंध रहता है। जैसे-वह मेहनत तो बहुत करता है पर फल नहीं मिलता।
(3) विकल्पसूचक- जब दो बातों में से किसी एक को स्वीकार करना होता है। जैसे- या तो उसे मैं अखाड़े में पछाड़ूँगा या अखाड़े में उतरना ही छोड़ दूँगा।
(4) परिणामबोधक- जब एक साधारण वाक्य दसूरे साधारण या मिश्रित वाक्य का परिणाम होता है। जैसे- आज मुझे बहुत काम है इसलिए मैं तुम्हारे पास नहीं आ सकूँगा।

3. मिश्रित वाक्य
जब किसी विषय पर पूर्ण विचार प्रकट करने के लिए कई साधारण वाक्यों को मिलाकर एक वाक्य की रचना करनी पड़ती है तब ऐसे रचित वाक्य ही मिश्रित वाक्य कहलाते हैं।
विशेष-
(1) इन वाक्यों में एक मुख्य या प्रधान उपवाक्य और एक अथवा अधिक आश्रित उपवाक्य होते हैं जो समुच्चयबोधक अव्यय से जुड़े होते हैं।
(2) मुख्य उपवाक्य की पुष्टि, समर्थन, स्पष्टता अथवा विस्तार हेतु ही आश्रित वाक्य आते है।

आश्रित वाक्य तीन प्रकार के होते हैं-
(1) संज्ञा उपवाक्य।
(2) विशेषण उपवाक्य।
(3) क्रिया-विशेषण उपवाक्य।

1. संज्ञा उपवाक्य-
जब आश्रित उपवाक्य किसी संज्ञा अथवा सर्वनाम के स्थान पर आता है तब वह संज्ञा उपवाक्य कहलाता है। जैसे- वह चाहता है कि मैं यहाँ कभी न आऊँ। यहाँ कि मैं कभी न आऊँ, यह संज्ञा उपवाक्य है।

2. विशेषण उपवाक्य-
जो आश्रित उपवाक्य मुख्य उपवाक्य की संज्ञा शब्द अथवा सर्वनाम शब्द की विशेषता बतलाता है वह विशेषण उपवाक्य कहलाता है। जैसे- जो घड़ी मेज पर रखी है वह मुझे पुरस्कारस्वरूप मिली है। यहाँ जो घड़ी मेज पर रखी है यह विशेषण उपवाक्य है।

3. क्रिया-विशेषण उपवाक्य- जब आश्रित उपवाक्य प्रधान उपवाक्य की क्रिया की विशेषता बतलाता है तब वह क्रिया-विशेषण उपवाक्य कहलाता है। जैसे- जब वह मेरे पास आया तब मैं सो रहा था। यहाँ पर जब वह मेरे पास आया यह क्रिया-विशेषण उपवाक्य है।
वाक्य-परिवर्तन

वाक्य के अर्थ में किसी तरह का परिवर्तन किए बिना उसे एक प्रकार के वाक्य से दूसरे प्रकार के वाक्य में परिवर्तन करना वाक्य-परिवर्तन कहलाता है।
(1) साधारण वाक्यों का संयुक्त वाक्यों में परिवर्तन-
साधारण वाक्य संयुक्त वाक्य
1. मैं दूध पीकर सो गया। मैंने दूध पिया और सो गया।
2. वह पढ़ने के अलावा अखबार भी बेचता है। वह पढ़ता भी है और अखबार भी बेचता है
3. मैंने घर पहुँचकर सब बच्चों को खेलते हुए देखा। मैंने घर पहुँचकर देखा कि सब बच्चे खेल रहे थे।
4. स्वास्थ्य ठीक न होने से मैं काशी नहीं जा सका। मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं था इसलिए मैं काशी नहीं जा सका।
5. सवेरे तेज वर्षा होने के कारण मैं दफ्तर देर से पहुँचा। सवेरे तेज वर्षा हो रही थी इसलिए मैं दफ्तर देर से पहुँचा।

(2) संयुक्त वाक्यों का साधारण वाक्यों में परिवर्तन-

संयुक्त वाक्य साधारण वाक्य
1. पिताजी अस्वस्थ हैं इसलिए मुझे जाना ही पड़ेगा। पिताजी के अस्वस्थ होने के कारण मुझे जाना ही पड़ेगा।
2. उसने कहा और मैं मान गया। उसके कहने से मैं मान गया।
3. वह केवल उपन्यासकार ही नहीं अपितु अच्छा वक्ता भी है। वह उपन्यासकार के अतिरिक्त अच्छा वक्ता भी है।
4. लू चल रही थी इसलिए मैं घर से बाहर नहीं निकल सका। लू चलने के कारण मैं घर से बाहर नहीं निकल सका।
5. गार्ड ने सीटी दी और ट्रेन चल पड़ी। गार्ड के सीटी देने पर ट्रेन चल पड़ी।

(3) साधारण वाक्यों का मिश्रित वाक्यों में परिवर्तन-
साधारण वाक्य मिश्रित वाक्य
1. हरसिंगार को देखते ही मुझे गीता की याद आ जाती है। जब मैं हरसिंगार की ओर देखता हूँ तब मुझे गीता की याद आ जाती है।
2. राष्ट्र के लिए मर मिटने वाला व्यक्ति सच्चा राष्ट्रभक्त है। वह व्यक्ति सच्चा राष्ट्रभक्त है जो राष्ट्र के लिए मर मिटे।
3. पैसे के बिना इंसान कुछ नहीं कर सकता। यदि इंसान के पास पैसा नहीं है तो वह कुछ नहीं कर सकता।
4. आधी रात होते-होते मैंने काम करना बंद कर दिया। ज्योंही आधी रात हुई त्योंही मैंने काम करना बंद कर दिया।

(4) मिश्रित वाक्यों का साधारण वाक्यों में परिवर्तन-
मिश्रित वाक्य साधारण वाक्य
1. जो संतोषी होते हैं वे सदैव सुखी रहते हैं संतोषी सदैव सुखी रहते हैं।
2. यदि तुम नहीं पढ़ोगे तो परीक्षा में सफल नहीं होगे। न पढ़ने की दशा में तुम परीक्षा में सफल नहीं होगे।
3. तुम नहीं जानते कि वह कौन है ? तुम उसे नहीं जानते।
4. जब जेबकतरे ने मुझे देखा तो वह भाग गया। मुझे देखकर जेबकतरा भाग गया।
5. जो विद्वान है, उसका सर्वत्र आदर होता है। विद्वानों का सर्वत्र आदर होता है।

वाक्य-विश्लेषण
वाक्य में आए हुए शब्द अथवा वाक्य-खंडों को अलग-अलग करके उनका पारस्परिक संबंध बताना वाक्य-विश्लेषण कहलाता है।
साधारण वाक्यों का विश्लेषण
1. हमारा राष्ट्र समृद्धशाली है।
2. हमें नियमित रूप से विद्यालय आना चाहिए।
3. अशोक, सोहन का बड़ा पुत्र, पुस्तकालय में अच्छी पुस्तकें छाँट रहा है।
उद्देश्य विधेय
वाक्य उद्देश्य उद्देश्य का क्रिया कर्म कर्म का पूरक विधेय क्रमांक कर्ता विस्तार विस्तार का विस्तार
1. राष्ट्र हमारा है - - समृद्ध -
2. हमें - आना विद्यालय - शाली नियमित
चाहिए रूप से
3. अशोक सोहन का छाँट रहा पुस्तकें अच्छी पुस्तकालय
बड़ा पुत्र है में
मिश्रित वाक्य का विश्लेषण-
1. जो व्यक्ति जैसा होता है वह दूसरों को भी वैसा ही समझता है।
2. जब-जब धर्म की क्षति होती है तब-तब ईश्वर का अवतार होता है।
3. मालूम होता है कि आज वर्षा होगी।
4. जो संतोषी होत हैं वे सदैव सुखी रहते हैं।
5. दार्शनिक कहते हैं कि जीवन पानी का बुलबुला है।
संयुक्त वाक्य का विश्लेषण-
1. तेज वर्षा हो रही थी इसलिए परसों मैं तुम्हारे घर नहीं आ सका।
2. मैं तुम्हारी राह देखता रहा पर तुम नहीं आए।
3. अपनी प्रगति करो और दूसरों का हित भी करो तथा स्वार्थ में न हिचको।
अर्थ के अनुसार वाक्य के प्रकार
अर्थानुसार वाक्य के निम्नलिखित आठ भेद हैं-
1. विधानार्थक वाक्य।
2. निषेधार्थक वाक्य।
3. आज्ञार्थक वाक्य।
4. प्रश्नार्थक वाक्य।
5. इच्छार्थक वाक्य।
6. संदेर्थक वाक्य।
7. संकेतार्थक वाक्य।
8. विस्मयबोधक वाक्य।

1. विधानार्थक वाक्य-जिन वाक्यों में क्रिया के करने या होने का सामान्य कथन हो। जैसे-मैं कल दिल्ली जाऊँगा। पृथ्वी गोल है।
2. निषेधार्थक वाक्य- जिस वाक्य से किसी बात के न होने का बोध हो। जैसे-मैं किसी से लड़ाई मोल नहीं लेना चाहता।
3. आज्ञार्थक वाक्य- जिस वाक्य से आज्ञा उपदेश अथवा आदेश देने का बोध हो। जैसे-शीघ्र जाओ वरना गाड़ी छूट जाएगी। आप जा सकते हैं।
4. प्रश्नार्थक वाक्य- जिस वाक्य में प्रश्न किया जाए। जैसे-वह कौन हैं उसका नाम क्या है।
5. इच्छार्थक वाक्य- जिस वाक्य से इच्छा या आशा के भाव का बोध हो। जैसे-दीर्घायु हो। धनवान हो।
6. संदेहार्थक वाक्य- जिस वाक्य से संदेह का बोध हो। जैसे-शायद आज वर्षा हो। अब तक पिताजी जा चुके होंगे।
7. संकेतार्थक वाक्य- जिस वाक्य से संकेत का बोध हो। जैसे-यदि तुम कन्याकुमारी चलो तो मैं भी चलूँ।
8. विस्मयबोधक वाक्य-जिस वाक्य से विस्मय के भाव प्रकट हों। जैसे-अहा ! कैसा सुहावना मौसम है।




                     

21. वर्ण विभाग

वर्ण विभाग
हिन्दी भाषा में प्रयुक्त सबसे छोटी ध्वनि वर्ण कहलाती है। जैसे-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, क्, ख् आदि।
वर्णमाला
वर्णों के समुदाय को ही वर्णमाला कहते हैं। हिन्दी वर्णमाला में ४४ वर्ण हैं। उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिन्दी वर्णमाला के दो भेद किए गए हैं: (क) स्वर (ख) व्यंजन
स्वर
जिन वर्णों का उच्चारण स्वतंत्र रूप से होता हो और जो व्यंजनों के उच्चारण में सहायक हों वे स्वर कहलाते है। ये संख्या में ग्यारह हैं: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ। उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गए हैं:
१. ह्रस्व स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में कम-से-कम समय लगता हैं उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। ये चार हैं- अ, इ, उ, ऋ। इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं।
२. दीर्घ स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। ये हिन्दी में सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ। विशेष- दीर्घ स्वरों को ह्रस्व स्वरों का दीर्घ रूप नहीं समझना चाहिए। यहाँ दीर्घ शब्द का प्रयोग उच्चारण में लगने वाले समय को आधार मानकर किया गया है।
३. प्लुत स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है। मात्राएँ स्वरों के बदले हुए स्वरूप को मात्रा कहते हैं स्वरों की मात्राएँ निम्नलिखित हैं: स्वर मात्राएँ शब्द अ × कम आ ा काम इ ि किसलय ई ी खीर उ ु गुलाब ऊ ू भूल ऋ ृ तृण ए े केश ऐ ै है ओ ो चोर औ ौ चौखट अ वर्ण (स्वर) की कोई मात्रा नहीं होती। व्यंजनों का अपना स्वरूप निम्नलिखित हैं: क् च् छ् ज् झ् त् थ् ध् आदि। अ लगने पर व्यंजनों के नीचे का (हल) चिह्न हट जाता है। तब ये इस प्रकार लिखे जाते हैं: क च छ ज झ त थ ध आदि।
व्यंजन
जिन वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं। अर्थात व्यंजन बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। ये संख्या में ३३ हैं। इसके निम्नलिखित तीन भेद हैं: १. स्पर्श २. अंतःस्थ ३. ऊष्म

स्पर्श
इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है और हर वर्ग में पाँच-पाँच व्यंजन हैं। हर वर्ग का नाम पहले वर्ग के अनुसार रखा गया है जैसे: कवर्ग- क् ख् ग् घ् ड़् चवर्ग- च् छ् ज् झ् ञ् टवर्ग- ट् ठ् ड् ढ् ण् (ड़् ढ्) तवर्ग- त् थ् द् ध् न् पवर्ग- प् फ् ब् भ् म्

अंतःस्थ
ये निम्नलिखित चार हैं: य् र् ल् व्
ऊष्म
ये निम्नलिखित चार हैं- श् ष् स् ह्
सयुंक्त व्यंजन
वैसे तो जहाँ भी दो अथवा दो से अधिक व्यंजन मिल जाते हैं वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं, किन्तु देवनागरी लिपि में संयोग के बाद रूप-परिवर्तन हो जाने के कारण इन तीन को गिनाया गया है। ये दो-दो व्यंजनों से मिलकर बने हैं। जैसे-क्ष=क्+ष अक्षर, ज्ञ=ज्+ञ ज्ञान, त्र=त्+र नक्षत्र कुछ लोग क्ष् त्र् और ज्ञ् को भी हिन्दी वर्णमाला में गिनते हैं, पर ये संयुक्त व्यंजन हैं। अतः इन्हें वर्णमाला में गिनना उचित प्रतीत नहीं होता।
अनुस्वार
इसका प्रयोग पंचम वर्ण के स्थान पर होता है। इसका चिन्ह (ं) है। जैसे- सम्भव=संभव, सञ्जय=संजय, गड़्गा=गंगा।

विसर्ग
इसका उच्चारण ह् के समान होता है। इसका चिह्न (:) है। जैसे-अतः, प्रातः।

चंद्रबिंदु
जब किसी स्वर का उच्चारण नासिका और मुख दोनों से किया जाता है तब उसके ऊपर चंद्रबिंदु (ँ) लगा दिया जाता है। यह अनुनासिक कहलाता है। जैसे-हँसना, आँख। हिन्दी वर्णमाला में ११ स्वर तथा ३३ व्यंजन गिनाए जाते हैं, परन्तु इनमें ड़्, ढ़् अं तथा अः जोड़ने पर हिन्दी के वर्णों की कुल संख्या ४८ हो जाती है।

हलंत
जब कभी व्यंजन का प्रयोग स्वर से रहित किया जाता है तब उसके नीचे एक तिरछी रेखा (्) लगा दी जाती है। यह रेखा हल कहलाती है। हलयुक्त व्यंजन हलंत वर्ण कहलाता है। जैसे-विद्यां।

वर्णों के उच्चारण-स्थान
मुख के जिस भाग से जिस वर्ण का उच्चारण होता है उसे उस वर्ण का उच्चारण स्थान कहते हैं। उच्चारण स्थान तालिका
क्रम वर्ण उच्चारण श्रेणी
१. अ आ क् ख् ग् घ् ड़् ह् विसर्ग कंठ और जीभ का निचला भाग कंठस्थ
२. इ ई च् छ् ज् झ् ञ् य् श तालु और जीभ तालव्य
३. ऋ ट् ठ् ड् ढ् ण् ड़् ढ़् र् ष् मूर्धा और जीभ मूर्धन्य
४. त् थ् द् ध् न् ल् स् दाँत और जीभ दंत्य
५. उ ऊ प् फ् ब् भ् म दोनों होंठ ओष्ठ्य
६. ए ऐ कंठ तालु और जीभ कंठतालव्य
७. ओ औ दाँत जीभ और होंठ कंठोष्ठ्य
८. व् दाँत जीभ और होंठ दंतोष्ठ्य



                  

22. संज्ञा

संज्ञा
साधारण शब्दों में नाम को संज्ञा कहते हैं, जैसे:- राम ने आगरा में सुंदर ताजमहल देखा । इस वाक्य में हम पाते हैं, कि राम एक व्यक्ति का नाम है, आगरा स्थान का नाम है, ताजमहल एक वस्तु का नाम है, तथा 'सुंदर' एक गुण का नाम है । इस प्रकार यह चारों क्रमशः व्यक्ति, स्थान, वस्तु, और भाव के नाम हैं अतः यह चारों संज्ञाएं हुई ।
परिभाषा:- 'किसी प्राणी, स्थान, वस्तु, तथा भाव के नाम का बोध कराने वाले शब्द संज्ञा कहलाते हैं ।'

संज्ञा के भेद :-
संज्ञा के मुख्य रूप से तीन भेद हैं -
1. व्यक्तिवाचक संज्ञा
2. जातिवाचक संज्ञा
3. भाववाचक संज्ञा

1. व्यक्तिवाचक संज्ञा :-
जिस संज्ञा शब्द में एक ही व्यक्ति, वस्तु या स्थान के नाम का बोध हो उसे "व्यक्तिवाचक संज्ञा" कहते हैं । व्यक्तिवाचक संज्ञा, 'विशेष' का बोध कराती हैं । 'सामान्य' का नहीं प्राय: व्यक्तिवाचक संज्ञा में व्यक्तियों, देशों, शहरों, नदियों, पर्वतों, त्योहारों, पुस्तकों, दिशाओं, समाचारपत्रों, दिनों और महीनों आदि के नाम आते हैं

2. जातिवाचक संज्ञा:-
जिस संज्ञा शब्द से किसी जाति के संपूर्ण प्राणियों, वस्तुओं, स्थानों आदि का बोध होता हो उसे "जातिवाचक संज्ञा" कहते हैं ।गाय, आदमी, पुस्तक, नदी आदि शब्द अपनी पूरी जाति का बोध कराते हैं, इसलिए जातिवाचक संज्ञा कहलाते हैं प्राय: जातिवाचक संज्ञा में वस्तुओं, पशु-पक्षियों, फल-फूल, धातुओं, व्यवसाय संबंधी व्यक्तियों, नगर, शहर, गांव, परिवार, भीड़ जैसे समूहवाची शब्दों के नाम आते हैं
3. भाववाचक संज्ञा:-
जिस संज्ञा शब्द से प्राणियों या वस्तुओं के गुण, धर्म दशा, कार्य, मनोभाव आदि का बोध हो उसे "भाववाचक संज्ञा" कहते हैं । प्राय: गुण, दोष, अवस्था, व्यापार, अमूर्त भाव तथा क्रिया के मूल रुप 'भाववाचक संज्ञा' के अंतर्गत आते हैं।
भाववाचक संज्ञा की रचना मुख्य पांच प्रकार के शब्दों से होती है :-
(1) जातिवाचक संज्ञा
(2) सर्वनाम से
(3) विशेषण से
(4) क्रिया से
(5) अव्यय से

(1) जातिवाचक संज्ञा से:-
जातिवाचक संज्ञा भाववाचक संज्ञा
1. दास दासता
2. पंडित पांडित्य
3. बंधु बंधुत्व और बंधुता
4. क्षत्रिय क्षत्रियत्व
5. पुरुष पुरुषत्व
6. प्रभु प्रभुता
7. पशु पशुता, पशुत्व
8. ब्राह्मण ब्राह्मणत्व
9. मित्र मित्रता
10. गुरु गौरव

(2) सर्वनाम से
सर्वनाम से भाववाचक संज्ञा
1. मम ममता/ममत्व
2. स्व स्वत्व
3. आप आप
4. सर्व सर्वस्व
5. निज निजत्व
6. अपना अपनापन/अपनत्व
7. एक एकता

(3) विशेषण से
विशेषण से भाववाचक संज्ञा
1. मीठा मिठास
2. चतुर चातुर्य, चतुराई
3. मधुर माधुर्य मधुरता
4. सुंदर सौंदर्य, सुंदरता

(4) क्रिया से
क्रिया से भाववाचक संज्ञा
1. खेलना खेल
2. थकना थकान
3. लिखना लेख
4. हँसना हँसी
5. चलना चाल
6. उड़ना उडान
7. चढ़ना चढ़ाई
8. खोदना खुदाई

(5) अव्यय से
अव्यय से भाववाचक संज्ञा
1. दूर दूरी
2. ऊपर ऊपरी
3. धिक् धिक्कार
4. शीघ्र शीघ्रता
5. मना मनाही
6. निकट निकटता
7. नीचे निचाई
8. समीप सामीप्य

कुछ विद्वान अंग्रेज़ी व्याकरण के प्रभाव के कारण संज्ञा शब्द के दो भेद और बतलाते हैं-

समूहवाचक संज्ञा।
द्रव्यवाचक संज्ञा।

जिन संज्ञा शब्दों से व्यक्तियों, वस्तुओं आदि के समूह का बोध हो उन्हें समूहवाचक संज्ञा कहते हैं।
जैसे - सभा, कक्षा, सेना, भीड़, पुस्तकालय, दल, मानव, पुसतक आदि।

द्रव्यवाचक संज्ञा

जिन संज्ञा-शब्दों से किसी धातु, द्रव्य आदि पदार्थों का बोध हो उन्हें द्रव्यवाचक संज्ञा कहते हैं।
जैसे - घी, तेल, सोना, चाँदी, पीतल, चावल, गेहूँ, कोयला, लोहा आदि।



                

23. वाच्य

वाच्य
क्रिया का वह रूप वाच्य कहलाता है जिससे मालूम हो कि वाक्य में प्रधानता किसकी है- कर्ता कि, कर्म की या भाव कि। इससे क्रिया का उद्देश्य ज्ञात होता है अंग्रेजी में वाक्य को 'Voice' कहते हैं। वाक्य तीन प्रकार के होते हैं -
1. कर्तृ वाक्य
2. कर्म वाच्य
3. भाव वाच्य

1. कर्तृ वाच्य:-
जब वाक्य में प्रयुक्त क्रिया का सीधा और प्रधान संबंध कर्ता से होता है उसे कर्तृ वाच्य कहते हैं। इसमें क्रिया के लिंग, वचन कर्ता के अनुसार प्रयुक्त होते हैं। अर्थात क्रिया का प्रधान विषय कर्ता है और क्रिया का प्रयोग कर्ता के अनुसार होगा।
जैसे:-
(1) मैं पुस्तक पढ़ता हूं।
(2) विमला ने मेहंदी लगाई।
(3) तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की।

2. कर्मवाच्य:-
जब क्रिया का संबंध वाक्य में प्रयुक्त कर्म से होता है, उसे कर्मवाच्य कहते हैं। अतः क्रिया के लिंग, वचन कर्ता के अनुसार न होकर कर्म के अनुसार होते हैं। कर्मवाच्य सदैव सकर्मक क्रिया का ही होता है क्योंकि इसमें कर्म की प्रधानता होती है।
जैसे:-
(1) सीता ने दूध पीया।
(2) सीता ने पत्र लिखा।
(3) मनोज ने मिठाई खाई।
(4) राम ने चाय पी।
इन वाक्यों में 'पीया' और 'लिखा' क्रिया का एकवचन पुल्लिंग रूप दूध व पत्र अर्थात कर्म के अनुसार आया है। इसी प्रकार 'खा' व 'पी' एक वचन पुर्लिंग क्रिया 'मिठाई' व 'चाय' कर्म पर आधारित है।

3. भाव वाच्य:-
क्रिया के जिस रुप से यह ज्ञात होता है कि कार्य का प्रमुख विषय भाव है, उसे भाव वाच्य कहते हैं। यहां कर्ता या कर्म कि नहीं क्रिया के अर्थ की प्रधानता होती है। इसमें अकर्मक क्रिया ही प्रयुक्त होती है। लिंग, वचन न कर्ता के अनुसार होते हैं ना कर्म के अनुसार बल्कि सदैव एकवचन, पुल्लिंग एवं अन्य पुरुष में होते हैं।
जैसे:-
(1) मुझसे सवेरे उठा नहीं जाता।
(2) सीता से मिठाई नहीं खाई जाती।
(3) लड़कों द्वारा खो-खो खेला जायेगा। आदि ।



               

24. शब्द शक्तियां

शब्द शक्तियां
शब्द की शक्ति असीम है। शब्द हमारे मन, कल्पना तथा अनुभूति पर प्रभाव डालता है। प्रयोग के अनुसार शब्द का अर्थ बदल जाता है। अभीष्ट अर्थ श्रोता तक पहुंचाने की क्षमता अथवा शब्द में छिपे हुए तात्पर्य को प्रसंगानुसार स्पष्ट करने की सामर्थ्य शब्द शक्ति है

उदाहरण के लिए :-

रमेश की 'गाय' 5 किलो दूध देती है तथा:- सुमित्रा की बहु तो निरी 'गाय' है। इन दोनों वाक्यों में 'गाय' शब्द आया है मगर अर्थ दोनों में भिन्न (एक में पशु का नाम तो दूसरे में भोला-भाला सीधा व सरल व्यक्ति) है। इस प्रकार वक्ता या लेखक के अभिष्ट का बोध कराने का गुण ही शब्द शक्ति है।

शब्द और अर्थ के इस चमत्कारिक स्वरूप को प्रकट करने वाले शब्द शक्तियां तीन प्रकार की है:-

1. अभिधा शब्द शक्ति:-
शब्द कि जिस शक्ति से किसी शब्द के सबसे साधारण, लोक प्रचलित अथवा मुख्य अर्थ का बोध होता है, उसे "अभिधा शब्द शक्ति" कहते हैं।
शब्द को सुनते ही अथवा पढ़ते ही श्रोता या पाठक उसके सबसे सरल, प्रचलित अर्थ को बिना अवरोध के ग्रहण करता है, वह ,अभिधा शब्द शक्ति, कहलाती है।
अभिधा शब्द शक्ति के उदाहरण:-
(1) राजा दशरथ अयोध्या के राजा थे।
(2) गुलाब का फूल बहुत सुंदर है।
(3) मोहन पुस्तक पढ़ रहा है।
(4) गाय घास चर रही है।
उपर्युक्त सभी वाक्यों के अर्थ ग्रहण में किसी प्रकार का अवरोध नहीं है।

2. लक्षणा शब्द शक्ति:-
जब किसी शब्द के मुख्यार्थ में बाधा हो या अभीष्ट अर्थ का बोध न हो तब अन्य अर्थ किसी लक्षण पर अथवा दीर्घकाल से माने जा रहे रूढ़ अर्थ पर आधारित होता है।
लक्षणा शब्द शक्ति के दो भेद इस प्रकार है =
(i) पुलिस देख चोर चौकन्ना हो गया
इसमें चोर द्वारा 'चौकन्ना' होने का अर्थ है- सजग हो जाना, सावधान हो जाना या अपने बचाव का उपाय सोच लेना। जबकि चौकन्ना का शाब्दिक अर्थ है चौ = चार, कन्ना = कान अर्थात 'चार कान वाला' अतः दो की जगह चार कान कहने का तात्पर्य है कानो का अधिकाधिक उपयोग करना, उनका पूरा लाभ उठाना। अतः यह अर्थ लक्षण पर आधारित हुआ। अतः यह 'प्रयोजनवती लक्षणा' कहलाता है।
इसी प्रकार उदाहरण :-
(ii) राजेश का पुत्र ऊँट हो गया।
इसमें 'ऊँट' का अर्थ है- अधिक लंबा होना। अब यह अर्थ 'रूढ़ि' के आधार पर लिया गया है। अतः यह 'रूढा लक्षणा' कहलाता है। इस प्रकार लक्षणा शब्द शक्ति में लक्षण या प्रयोजन तथा रूढ़ि द्वारा अर्थ ग्रहण किया जाता है।
अन्य उदाहरण:-
(1) लाला लाजपत राय पंजाब के शेर हैं।
(2) सारा घर मेला देखने गया।
(3) नरेश तो गधा है।
(4) वह हवा से बातें कर रहा था।
(5) सैनिकों ने कमर कस ली।
उदाहरणों में 'शेर', 'घर', 'गधा', 'हवा', 'कमर कसना' आदि लाक्षणिक अर्थ है जिनके लाक्षणिक अर्थ ही ग्रहण किए जाएंगे।

3. व्यंजना शब्द शक्ति:-
जब किसी शब्द का अर्थ में अभिधा से प्रकट होता है ना लक्षणा से बल्कि कोई अन्य अर्थ ही प्रकट होता है। वह "व्यंजना शब्द शक्ति" होती है।
'व्यंजना' का अर्थ है विकसित करना, स्पष्ट करना, रहस्य खोलना। अतः किसी शब्द का छुपा हुआ अन्य अर्थ ज्ञात करना ही व्यंजना शब्द शक्ति कहलाती है। इस में कथन के संदर्भ में के अनुसार एक ही शब्द के अलग-अलग अर्थ प्रकट होते हैं तो कभी श्रोता या पाठक की कल्पना शक्ति कोई नया अर्थ कर लेती है।
जैसे:- "संध्या हो गई" वाक्य का अर्थ "चरवाहे के लिए घर लौटने का समय" तो 'पुजारी के लिए पूजन वंदन का समय' है।
'व्यंजना' शब्द शक्ति से प्राप्त अर्थ को दो भागों में विभक्त करते हैं:-
(i) शाब्दी व्यंजना
(ii) आर्थी व्यंजना

(i) शाब्दी व्यंजना:-
जब व्यंजना शब्द पर निर्भर हो, शब्द बदल देने से अर्थात पर्याय रख देने से अर्थ बदल जाता हो वहां व्यंजना होती है क्योंकि अभिष्ट अर्थ के लिए वही शब्द आवश्यक है।
जैसे:-
चिरजीवो जोरी जुरै, क्यों न सनेह गंभीर। को घटि, ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।।
यहां वृषभानुजा का अर्थ राधा तथा गाय हैं वही हलधर के भी दो अर्थ बलराम तथा बैल है। अतः यहां शब्द का चमत्कार जो पर्याय रख देने पर नहीं रह सकता।
शाब्दी व्यंजना का अन्य उदाहरण:-
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।।
इसमें पानी शब्द के तीन अर्थ (चमक, सम्मान एवं जल) उसके पर्याय रख देने पर नहीं रहेंगे।

(ii)आर्थी व्यंजना:-
जब शब्दार्थ की व्यंजना अर्थ पर निर्भर रहती है। उसका पर्याय रख देने पर भी अभीष्ट की पूर्ति हो जाती है वहां आर्थी व्यंजना होती है। आर्थी व्यंजना में बोलने वाले, सुनने वाले, प्रकरण, देशकाल, कंठ-स्वर आदि का बोध कराती है।
जैसे-
सघन कुंज, छाया सुखद, सीतल मंद समीर।
मन ह्वै जात अजौं वहै, वा यमुना के तीर।।
इसमें गोपिका कृष्ण के साथ बिताए यमुना तट की लीलाओं को याद कर रही है। जो बातें वह कहना चाहती है, ह्रदय के जिन भावों का प्रभाव वह व्यक्त करना चाहती है वह समस्त भाव संसार यहां व्यक्त हो गया है।




                  

25. विराम चिह्न

विराम चिह्न
विराम का शाब्दिक अर्थ है-ठहराव अथवा रुकना। किसी भी भाषा को बोलते, पढ़ते या लिखते समय या किसी कथन को समझाने के लिए अथवा
भावों को नष्ट करने के लिए वाक्यो के बीच में या अंत में थोड़ा रुकना होता है और किसी रूकावट का संकेत देने वाले लिखित चिह्न विराम विराम
चिह्न कहलाते हैं।
विराम चिह्न के प्रयोग से भावों को आसानी से समझा जा सकता है और भाषा में स्पष्टता आती है। यदि उचित स्थान पर इनका प्रयोग न किया
जाए तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है।

जैसे:-
रोको, मत जाने दो।
रोको मत, जाने दो।

हिंदी में कई तरह के विराम चिह्नों का प्रयोग किया जाता है।

प्रमुख विराम चिह्न
क्र. स. विराम चिह्नों के नाम विराम चिह्न
1 पूर्ण विराम ।
2 अर्धविराम ;
3 अल्पविराम ,
4 प्रश्न सूचक ?
5 विस्मय सूचक चिन्ह !
6 योजक चिह्न -
7 निर्देशक चिह्न ¬
8 उद्धरण चिह्न " "
9 विवरण चिह्न :-
10 कोष्ठक चिह्न ( )
11 संक्षेप सूचक .

1. पूर्ण विराम (।)
पूर्ण विराम का प्रयोग वाक्य पूरा होने पर किया जाता है। जहां प्रश्न पूछा जाता है उसे छोड़कर हर प्रकार के वाक्यों के अंत में इसका प्रयोग होता
है।
जैसे:-
(1) सुबह का समय था।
(2) भारत मेरा देश है।
(3) वह कितना सुंदर चित्र है।

2. अर्धविराम (;):-
जहां पूर्ण विराम जितनी देर रुक कर उससे कुछ कम समय रुकना हो वहां अर्थ विराम का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रयोग विपरीत अर्थ प्रकट करने के लिए भी किया जाता है।
जैसे:-
(1) भगत सिंह नहीं रहे; वह अमर हो गए।
(2) नदी में बाढ़ आ गई; सभी अपना घर बार छोड़कर जाने लगे।

3. अल्पविराम (,):-
अल्पविराम का प्रयोग अर्धविराम से भी कम समय रुकने के लिए किया जाता है। इसका प्रयोग समान पदों को अलग करने, उपवाक्य को अलग
करने, उद्धरण से पूर्व, उपाधियों से पूर्व, संबोधन और अभिवादन के बाद आदि स्थानों पर होता है।

4. प्रश्न सूचक (?):-
प्रश्न सूचक चिह्न जिनका प्रयोग प्रश्नवाचक वाक्य या शब्दों के अंत में किया जाता है। कभी कभी संदेह, अनिश्चय व् व्यंगात्मक भाषा भाव की
स्थिति में इसे कोष्टक के बीच में लिखकर भी प्रयोग किया जाता है।
जैसे:-
(1) क्या तुमने अपना गृहकार्य पूरा कर लिया?
(2) तुम कब आओगे?

5. विस्मय सूचक चिन्ह (!):-
खुशी, हर्ष, घृणा, दुख, करुणा, दया, शोक, विस्मय आदि भावों को प्रकट करने के लिए इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है। संबोधन के बाद भी
इसका प्रयोग किया जाता है।


जैसे:-
(1) वाह! कितना सुंदर पक्षी है। (खुशी)
(2) अरे! तुम आ गए। (आश्चर्य)
ओह! तुम्हारे साथ तो बहुत बुरा हुआ। (दुःख)

6. योजक चिह्न (-):-
इस प्रकार के चिह्न का प्रयोग युग्म शब्दों के मध्य या दो शब्दों के संबंध स्पष्ट करने के लिए तथा शब्दों को दोहराने की स्थिति में किया जाता है। जैसे पीला सा, खेलते-खेलते, सुख-दुख।
जैसे:-
(1) सभी के जीवन में सुख-दुख आते तो आते ही रहते हैं।
(2) सफलता पाने के लिए दिन-रात एक करना पड़ता है।

7. निर्देशक चिह्न (¬):-
किसी भी निर्देश या सूचना देने वाले वाक्य के बाद में या किसी कथन को उद् धृत करने, उदाहरण देने, किसी का नाम (कवि, लेखक आदि का) लिखने के लिए किया जाता है।
जैसे:-
(1) हमारे देश में अनेक देशभक्त हुए ¬ भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, गांधी जी आदि।

(2) मां ने कहा - बड़ों का आदर करना चाहिए।

8. उद्धरण चिह्न (" "):-
किसी के कहे कथन या वाक्य को या किसी रचना के अंश को ज्यो का त्यों प्रस्तुत करना हो तो कथन के आदि और अंत में इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है। उद्धरण चिह्न दोनों प्रकार के होते हैं एक इकहरे (' ') तथा दोहरे (" ") इकहरे चिह्न का प्रयोग विशेष व्यक्ति, ग्रंथ, उपनाम आदि को प्रकट करने के लिए किया जाता है। जबकि किसी की कही हुई बात को ज्यो का त्यों लिखा जाए तो दोबारा दोहरे उद्धरण चिन्ह का प्रयोग करते हैं।
जैसे:-
(1) 'गोदान' प्रेमचंद का प्रसिद्ध उपन्यास है।
(2) सुभाष चंद्र बोस ने कहा था, "दिल्ली चलो।"

9. विवरण चिह्न (:-) :-
इसका प्रयोग विवरण या उदाहरण देते समय किया जाता है।
जैसे:-
(1) गांधी जी ने तीन बातों पर बल दिया :- सत्य अहिंसा और प्रेम।

10. कोष्ठक ( ) चिह्न:-
वाक्य के बीच में आए पदों अथवा शब्दों को प्रथक रूप देने के लिए कोष्टक में लिखा जाता है।
जैसे:-
(1) यहां चारों वेदों (साम, ऋग, यजु, अथर्व) की महत्ता बताई है।

11. संक्षेप सूचक (.) :-
किसी शब्द को संक्षेप में लिखने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। इस शब्द का पहला अक्षर लिख कर उसके आगे बिंदु (.) लगा देते हैं। यह शुन्य लाघव चिह्न के नाम से जाना जाता है।
(1) जैसे:-
बी. ए., डॉ. अनुष्का शर्मा, पं. राम स्वरुप शर्मा




                    

26. अलंकार

अलंकार

काव्य के सौंदर्य को बढ़ाने वाले तत्व अलंकार कहलाते हैं। 'अलंक्रियते इति अलंकार'। जो अलंकृत या विभूषित करें उसे ही अलंकार कहते
हैं। जिस प्रकार आभूषण मनुष्य की शोभा में वृद्धि करते हैं ठीक उसी प्रकार अलंकार काव्य के सौंदर्य को बढ़ाते हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि- "भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिकतम अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होने वाली उक्ति अलंकार है।"
अलंकार तीन प्रकार के होते हैं-
1. शब्दालंकार
2. अर्थालंकार
3. उभयालंकार

1. शब्दालंकार:-.
जब अलंकार का चमत्कार शब्द में निहित होता है तब वहां शब्दालंकार होता है। यह शब्द का पर्याय रखने पर चमत्कार खत्म हो जाता है। अनुप्रास, लाटानुप्रास, यमक, श्लेष, वक्रोक्ति, पुनरुक्ति प्रकाश, पुनरुक्तिवदाभास, विप्सा आदि शब्दालंकार है।

2. अर्थालंकार:-
जब अलंकार का चमत्कार उसके शब्द के स्थान पर अर्थ में निहित हो तो वहां अर्थालंकार होता है। यहां पर्यायवाची शब्द रखने पर भी चमत्कार बना रहता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, उदाहरण, विरोधाभास आदि अर्थालंकार है।

3. उभयालंकार:-
यहां अलंकार का चमत्कार उसके शब्द और अर्थ दोनों में पाया जाए तो वहां उभयालंकार होता है। श्लेष अलंकार उभयालंकार की श्रेणी में आता है। शब्द के आधार पर शब्द श्लेष तथा अर्थ के आधार पर अर्थ श्लेष।

(1) अनुप्रास:-
जहां वाक्य में वर्णों की आवृत्ति एक से अधिक बार हो तो वहां
अनुप्रास अलंकार होता है। वर्णों की आवृत्ति में स्वरों का समान होना आवश्यक नहीं होता है।
अनुप्रास के भेद-
अनुप्रास के मुख्य चार भेद होते हैं:-
(i) छेकानुप्रास
(ii) वृत्यानुप्रास
(iii)श्रुत्यानुप्रास
(iv) अंत्यानुप्रास

(i) छेकानुप्रास:-
जहां वाक्य में किसी एक वर्ण की आवृत्ति केवल एक ही बार हो अर्थात वह वर्ण दो बार आए तो वहां छेकानुप्रास अलंकार होता है।

(ii) वृत्यानुप्रास:-
जहां वाक्य में किसी एक या अनेक वर्णों की आवृत्ति से अधिक बार हो तो वहां वृत्यानुप्रास अलंकार होता है।

(iii) श्रुत्यानुप्रास:-
जहां मुख के एक ही उच्चारण स्थान से उच्चरित होने वाले वर्णों की आवृत्ति होती है तब वहां श्रुत्यानुप्रास अलंकार होता है।

(iv) अंत्यानुप्रास:-
जब छंद की प्रत्येक पंक्ति के अंतिम वर्ण या वर्णों में समान वर्णों के कारण तुकान्तका बनती हो तो वहां अंत्यानुप्रास अलंकार होता है।

(2) यमक:-
एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार भिन्न भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है, तब वहां यमक अलंकार होता है।

(3) श्लेष अलंकार:-
जब कोई एक शब्द एकाधिक अर्थों में प्रयुक्त हो, तब वहां श्लेष अलंकार होता है।
श्लेष अलंकार दो भेद होते हैं-
(i) शब्द श्लेष (ii) अर्थ श्लेष
जब कोई शब्द अपने एक से अधिक अर्थ प्रकट करें तो उस शब्द के कारण वहां शब्द श्लेष होता है और जब श्लेष का चमत्कार शब्द के स्थान पर उसके अर्थ में निहित हो तो वहां अर्थ श्लेष होता है।

(4) उपमा:-
जब किन्हीं दो वस्तुओं में रंग, रूप, गुण, क्रिया और स्वभाव आदि के कारण समता प्रदर्शित की जाती है तब वहां उपमा अलंकार होता है।
उपमा अलंकार के भेद-
(i) पूर्णोपमा
(ii) लुप्तोपमा
(iii) मालोपमा

(5) रूपक:-
जब उपमेय में उपमान को अभेद रूप दर्शाया जाए तब वहां रूपक अलंकार होता है। इसमें उपमेय में उपमान का आरोप किया जाता है।
रूपक के तीन भेद होते हैं-
(i) सांगरूपक
(ii) निरंग रूपक
(iii) पारंपरित रूपक

(6) उत्प्रेक्षा:-
जब उपमेय में उपमान की बल पूर्वक संभावना व्यक्त होती जाती है तब वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यहां संभावना अभिव्यक्त हेतु जनू, जानो, मनु, मानो, निश्चय, प्राय, बहुदा, खलु आदि शब्द प्रयुक्त किए जाते हैं।
उत्प्रेक्षा के तीन भेद होते हैं-
(i) वस्तूत्प्रेक्षा
(ii) हेतूत्प्रेक्षा
(iii) फलोत्प्रेक्षा

(7) विरोधाभास:-
जहां वास्तविक विरोध न होते हुए भी विरोध का आभास हो वहां विरोधाभास अलंकार होता है।

(8) उदाहरण अलंकार:-
एक बात कहकर उसकी पुष्टि हेतु दूसरा समान कथन कहा जाए तब वहां उदाहरण अलंकार होता है। इस अलंकार में ज्यो, जिमि, जैसे, यथा आदि वाचक समानता दर्शाने हेतु शब्द प्रयुक्त होते हैं।






                  

27. पत्र लेखन

पत्र लेखन
मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते अपने जन्म से मृत्यु पर्यंत अपने भावों और विचारों को दूसरों तक संप्रेषित करता है। आदि काल में मनुष्य ढोल बजाकर चिल्ला कर या आग जलाकर अपने संदेश अपने मित्रों या परिचितों तक पहुंचाता था। आज का युग सूचना क्रांति का युग है, संदेश संप्रेषण के कई साधन आज हमारे पास उपलब्ध है। इन अत्याधुनिक साधनों को अपनाते हुए भी पत्र का महत्व है।
कई बार वह अपने स्वजनों को बधाई वह शुभकामना प्रेषण के लिए पत्र लिखता है, तो कई बार रोजगार के लिए आवेदन पत्र लिखता है। कभी किसी कार्य के न हो पाने पर शिकायती पत्र या सरकारी कामकाजों के संपादन के लिए भी एक कर्मचारी को नित्य प्रति कई प्रकार के पत्र लिखने होते हैं। इसी कारण संदेश प्रेषण के कितने ही अत्याधुनिक विकल्प उपस्थित होने के बावजूद पत्र लेखन का आज भी अपना महत्व है, लेकिन वास्तव में पत्र लेखन भी एक कला है।
अच्छे पत्र की विशेषताएं
एक अच्छे एवं प्रभावी पत्र में निम्नलिखित विशेषता होती है-
1. सरलता:-
एक अच्छे पत्र की भाषा सरल होनी चाहिए जिससे कि प्राप्तकर्ता को संदेश सरलता से संप्रेषित हो सकें उसमें कठिन भाषा में नहीं होनी चाहिए।
2. स्पष्टता:-
एक अच्छे पत्रिका प्रमुख गुण स्पष्टता होता है। पत्र लेखक को अपनी बात इतनी स्पष्ट लिखनी चाहिए कि प्राप्तकर्ता आपके संदेश को स्पष्ट रुप से ग्रहण करें।
3. संक्षिप्तता:-
पत्र में संक्षिप्तता का गुण भी होता है। पत्र लेखक को अपनी बात कम शब्दों में पूरी करने का प्रयास करना चाहिए। कई बार हम एक ही बात को अलग-अलग शब्दों में पुनः लिखते जाते हैं। इस वृत्ति से हमें बचना चाहिए।
4. क्रमबद्धता:-
पत्र लेखक को अपने पत्र लेखन में क्रमबद्धता का भी ध्यान रखना चाहिए। जब एक ही पत्र में एकाधिक बातें लिखी जाने हो तब पहले महत्वपूर्ण बातों को लिखते हुए फिर सामान्य बातों की और बढ़ना चाहिए, साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि एक बार जब लिखना प्रारंभ करें तब उसे पूरी तरह पूर्ण करने के बाद ही दूसरे विषय पर लिखना आरंभ करना चाहिए।
5. संपूर्णता:-
पत्र लेखक को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वह जो-जो संदेश संप्रेषित करना चाहता है, वह सब उसने उस पत्र में समाहित कर दिए हो कोई भी विषय या बात लिखने से नहीं रह जाए।
6. प्रभावशीलता:-
पत्र ऐसा होना चाहिए, कि वह पाठक या प्राप्त करता पर अपना प्रभाव छोड़े। इसके लिए पत्र लेखक को प्रभावी भाषा के साथ-साथ प्रभावी शैली को अपनाना चाहिए।
7. बाह्य सज्जा:-
उपयुक्त विशेषताओं के साथ बाह्य सज्जा का भी पत्र लेखन मैं अपना महत्व होता है। इस हेतु निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।
(1) कागज अच्छे किस्म का हो।
(2) लिखावट सुंदर व स्पष्ट हो।
(3) वर्तनी की त्रुटियां न हो।
(4) विराम चिह्नों का उचित प्रयोग।
(5) तिथि, अभिवादन, अनुच्छेद का उचित प्रयोग आदि।

1. व्यक्तिगत या पारिवारिक पत्र:-
किसी व्यक्ति द्वारा जब अपने परिवारजनों या मित्रों को कोई पत्र लिखा जाता है तो उसे व्यक्तिगत या पारिवारिक पत्र कहते हैं। पिता माता या मित्र को पत्र बधाई पत्र निमंत्रण पत्र और संवेदना पत्र व्यक्तिगत या पारिवारिक पत्रों की श्रेणी में आते हैं।

2. कार्यालयी पत्र
वह पत्र जो किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा किसी अन्य अधिकारी या कर्मचारी को किसी विशेष राजकीय कार्य को करने या जानकारी देने हेतु लिखे जाते हैं, वह कार्यालय या सरकारी पत्र कहलाते हैं।
जैसे:- सामान्य सरकारी पत्र, परिपत्र, अधिसूचना, अनुस्मारक, विज्ञप्ति, कार्यालय आदेश, ज्ञापन, निविदा आदि।

3. व्यावसायिक पत्र
किसी व्यावसायिक संस्था द्वारा किसी अन्य व्यावसायिक संस्था को व्यावसायिक कार्य हेतु लिखा गया पत्र व्यावसायिक पत्र कहलाता है। इस प्रकार के पत्र द्वारा व्यवसायिक पूछताछ मूल्य जानकारी सामान क्रय विक्रय पहुंच आदि के विषय में पत्राचार किया जाता है।

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सिंधु घाटी सभ्यता

आज हम सामान्‍य ज्ञान भाग से एक बहुत ही महत्‍वपूर्ण विषय को पढेंगे, जो है सिंधु घाटी सभ्‍यता के बारे में सभी महत्‍वपूर्ण तथ्‍य। ये बिन्‍दु ...